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________________ ३८ कर्मप्रकृति ओरालिय वेगुम्विय आहारय अंगुवंगमिदि भणिदं । अंगोवंगं तिविहं परमागमकुसलसाहूहिं ॥७३॥ . औदारिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम १ वैक्रियिकशरोराङ्गोपाङ्ग नाम २ आहारकशरीराङ्गोपाङ्गनाम ३ इति शरीराङ्गोपाङ्गं त्रिविधं परमागमकुशलसाधुभिर्गणधरदेषमणितम् ।७।३३१४३। यदुदयादङ्गोपाङ्गं प्रकटीभवति तदाङ्गोपाङ्गनाम । औदारिकशरीरस्य चरणद्वय-बाहुद्वय-नितम्ब-पृष्ठ-वक्षः-शीर्षभेदादाभानि, अङ्गुलीकर्णनासि. काद्यपाङ्गानि करोति यत्तदौदारिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम। एवं वैक्रियिकाऽऽहारकशरीरयोरपि यदङ्गोपाङ्गकारक तद्वैक्रियिकाहारकशरीराङ्गोपाङ्ग नामद्वयम् ॥७३॥ अङ्गोपाङ्गानि दर्शनार्थ गाथामाह णलया बाहू य तहा णियंब पुट्ठी उरो य सीसो य । अट्ठव दु अंगाई देहे सेसा उवंगाई ॥७४॥ नलको पादौ २ तथा बाहू हस्तौ २ एको नितम्ब: १ एका पृष्टिः १ उरोभागः । शीर्ष १ चेत्यष्टो अङ्गानि, शेषाणि अङ्गुलीकर्णनासिकादीनि उपाङ्गानि देहे शरीरे भवन्ति ॥७४॥ दुविहं विहायणामं पसत्थ-अपसत्थगमणमिदि णियमा । वारिसहणारायं वज्जणाराय णारायं ॥७॥ - विहायोगतिनाम द्विविधं द्विप्रकारं नियमात् निश्चग्नतः भवति । प्रशस्तविहायोगतिनाम अप्रशस्त और नीचे मोटा हो उसे स्वातिसंस्थान कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे शरीर कुबड़ा हो उसे कब्जकसंस्थान कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे शरीर बौना हो उसे वामनसंस्थान-कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे शरीर के अंगोपांग यथायोग्य न होकर हीनाधिक परिमाणको लिये हुए. भयानक आकारवाले हों उसे हुण्डकसंस्थान कहते हैं। आंगोपांग नामकर्मके भेद परमागममें कुशल साधुओंने आंगोपांग नामकर्मके तीन भेद कहे हैं-१ औदारिक ' शरीर आंगोपांग २ वैक्रियिक शरीर आंगोपांग ३ आहारक शरीर आंगोपांग ॥७३॥ । भावार्थ-आंगोपांग नामकर्मके उदयसे शरीर के अंग और उपांगोंकी रचना होती है । शरीरके आठ अंग शरीरमें ये आठ अंग होते हैं-दो पैर, दो हाथ, नितम्ब ( कमरके पीछेका भाग ), पीठ, हृदय और मस्तक । नाक, कान आदि उपांग कहलाते हैं ।।७४|| अब आधी गाथाके द्वारा ग्रन्थकार विहायोगति नामकर्मके भेद बतलाते हैंविहायोगति नामकर्मके नियमसे दो भेद हैं१ प्रशस्तविहायोगति २ अप्रशस्तविहायोगति । विशेषार्थ-जिस कर्मके उदयसे जीवकी चाल हाथी, बैल आदिके समान: उत्तम हो उसे प्रशस्त विहायोगति नामकर्म कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे जीवकी चाल ऊँट, गधे आदिके समान बुरी हो उसे अप्रशस्त विहायोगति नामकर्म कहते हैं। अव संहनन नामकर्मके भेद कहते हैंअनादि निधन आर्षमें संहनन नामकर्म छह प्रकारका कहा गया है। १ ववृषभ१. गो० क० २८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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