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________________ विषय-सूची गाथा-संख्या १-१२१ प्रकृति समुत्कीर्तन मंगलाचरण और प्रकृतिसमुत्कीर्तनके कथनकी प्रतिज्ञा प्रकृतिशब्दका अर्थ और जीव-कर्मके सम्बन्धकी अनादिता शरीर नामकर्मके उदयसे जीव कर्म और नोकर्मवर्गणाभोंको ग्रहण करता है एक समयमें बंधनेवाले समयप्रबद्धका परिमाण उदय और सत्त्व-गत समयप्रबद्धका परिमाण कर्मके दो भेद और उनका स्वरूप द्रव्यकर्मके मूल और उत्तर भेदोंका वर्णन, तथा घाति-अघाति संज्ञाका निर्देश दन्यकर्मको आठों मूल प्रकृतियोंका नाम निर्देश मल कौंका घाति और अघाति रूपसे विभाजन जीवके क्षायिक और क्षायोपशमिक गुणों का वर्णन मायुकर्मका स्वरूप नामकर्मका स्वरूप गोत्रकर्मका स्वरूप वेदनीयकर्मका स्वरूप । जीवके ज्ञान-दर्शन और सम्यक्त्वगुणकी सिद्धि सप्तभंगीके नाम और उसके द्वारा द्रव्य-सिद्धिकी सूचना पाठों कर्मों के पाठ-क्रमकी सयुक्तिक सिद्धि अन्तराय कर्मको सबसे अन्त में रखनेका सयुक्तिक निरूपण नाम और गोत्रकर्मके पौर्वापर्यका सयुक्तिक निरूपण घातिकर्मों के मध्य मोहकर्मके पूर्व वेदनीयको रखनेका सयुक्तिक निरूपण . आठों कर्मोंका सयुक्तिक सिद्ध पाठ-क्रम बन्धका स्वरूप पूर्व कर्म-बन्धके उदय होनेपर राग-द्वेषकी उत्पत्तिका निरूपण राग-द्वेषके कारण पुनः नवीन कर्म-बन्धका वर्णन एक समयमें बँधा कर्म-पिण्ड सात कर्मरूपसे परिणत होता है बन्धके प्रकृति-स्थिति आदि चार भेदोंका निरूपण आठ कर्मोंके दृष्टान्त ज्ञानावरणकर्मका दृष्टान्तपूर्वक स्वरूप और भेद दर्शनावरणकर्मका वेदनीयकर्मका मोहनीयकर्मका आयुकर्मका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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