________________
१५२
कमप्रकृति विनयादि इनका देखनेवाला हो, स उचैर्गोत्रं वध्नाति–सो जीव ऊँचगोत्र. बाँधे है। विपरीतः इतरं बध्नाति-इसतें जो विपरीत अरहन्तादिकी भक्ति-रहित, अरुचिवन्त, पठननिमित्त विनयादिगुण-रहित, सो जीव नीचगोत्रकर्म. बाँधे है ।
पर अप्पाणं जिंदा पसंसणं णीचगोदव धस्स ।
सदसदगुणाणमुच्छादणमुब्भासणमिदि होदि ॥१६०॥ परात्मनोः निन्दा-प्रशंसने-परेषां निन्दा, आत्मनः प्रशंसा और जीवनिकी निन्दा करना, अपनी प्रशंसा करना, सदसद्गुणानां आच्छादनोद्भावने अन्येषां सद्गुणानां आच्छादनं आत्मनः असद्गुणानां उद्भावनं-औरके वर्तमान गुणनिका आच्छादन, अरु अपने विर्षे गुण नाहीं, बढ़ाई निमित्त झूठे अपने गुणहुका प्रकाशन, एतानि पि नीचगोत्रबन्धस्य कारणानि भवन्ति-ये भी नोचगोत्रबन्धके कारण जानने। आगे अन्तरायकर्मके बन्धकारण कहैं हैं
पाणबधादिसु रदो जिणपूजामोक्खमग्गविग्घयरो ।
अज्जेइ अंतरायं ण लहइ जं इच्छियं जेण ॥१६१॥ यः प्राणबधादिषु रतः--जो जीव हिंसा असत्य चोरी मैथुन परिग्रह इत्यादि अधर्मविषे रत हैं, जिनपूजामोक्षमार्गविघ्नकरः-जिनेश्वरकी पूजा अरु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्भक मोक्षमार्ग इनका विघ्न करणवाला, स अन्तरायं अर्जयति-सो जीव अन्तरायकर्म उपार्जन करे है, येन स यदिच्छितं लाभं न लभते-जिस अन्तरायकरि वह जीव वांछित वस्तुको न पावे ऐसा अन्तरायकर्म बाँधे है।
इहाँ जो कोई प्रश्न करे कि सिद्धान्तविर्षे संसारी जीवके निरन्तर समय-समयविर्षे आयुकर्म के विना सातकर्मका बन्ध कह्या है, इहाँ प्रत्यनीक आदिक क्रियाकरि जुदा जुदा कह्या है; एक-एक कर्मका बन्ध एक क्रिया जो खरे थोड़ा काल विर्षे होय, तो भी असंख्यात समय ताई होय, तो एक समय सातकर्मका बन्ध क्यों संभवै ? ताको उत्तर-इस अनादि-अनन्त संसारविर्षे जीव अनादिसों सन्तानवशतें राग-द्वेषादि परिणाम करे है, तिस राग-द्वेषादि परिणामके वशतें समय-समय सातकर्मका बन्ध स्थिति-अनुभागकी जघन्यता करि करै है। अरु जिस काल यह जीव पूर्वोक्त प्रत्यनीकादिक क्रियाविर्षे प्रवते, तब जैसी कछ उत्कृष्ट मध्यम जघन्य शुभाशुभ क्रिया होय, तिस माफिक कर्महुका बन्ध करे स्थिति-अनुबन्धकी विशेषताकरि । तिसतें समय-समयवि बन्ध जो करे सो तो स्थिति-अनुभागकी हीनताकरि । अरु जो प्रत्यनीक आदिक पूर्वोक्त क्रिया करि करै सो स्थिति-अनुभागकी विशेषता करि कर, यह सिद्धान्त जानना। इयं भाषा-टीका कर्मकाण्डस्य पण्डित हेमराजेन कृता स्वबुद्धयनुसारेण ।
इति कर्मप्रकृतिविधानं समाप्तम् ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org