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________________ १२२ कमप्रकृति भावार्थ-पाषाणस्तम्भसमान उत्कृष्ट शक्तिसंयुक्त अनन्तानुबन्धी मान जीवको नरकगतिविर्षे उपजावै है। अस्थिस्तम्भ समान मध्यमशक्ति संयुक्त अप्रत्याख्यान मान जीवको तिर्यंचगतिविष उपजावै है । काष्ठस्तम्भसमान अजघन्य शक्तिसंयुक्त प्रत्याख्यान मान जीवको मनुष्यगति विर्षे उपजावे है । वेंतसमान जघन्य शक्तिसंयुक्त संज्वलन मान जीवको देवगतिविर्षे उपजावे है। अथ चार प्रकार मायाके स्वरूपको कहै हैं- . वेणुवमूलरब्भयसिंगे गोमुत्तए य खोरुप्पे । सरिसी माया णारयतिरियणरामरगईसु खिवदि जियं ॥५६॥ वेणपमूलोरभ्रकशृङ्गगोमूत्रक्षुरप्रसदृशी माया वांसविडा समान उत्कृष्टशक्तिसंयुक्त अनन्तानुबन्धीमाया जीवको नरकगति विर्षे उपजावै है। अजाशृंगसमान मध्यमशक्तिसंयुक्त अप्रत्याख्यानमाया जीवको तिर्यंचगतिविर्षे उपजावै है। गोमूत्रसमान अजघन्यशक्तिसंयुक्त प्रत्याख्यानमाया जीवको मनुष्यगतिविर्षे उपजावे है। क्षुरप्रसमान जघन्यशक्तिसंयुक्त संज्वलनमाया जीवको देवगतिविणे उपजावे है। अथ चार प्रकार लोभके स्वरूपको कहै हैं किमिराय-चक्क-तणुमल-हलिद्दराएण सरिसओ लोहो । णारयतिरिक्खमाणुसदेवेसुप्पायओ कमसो ॥६०॥ कृमिराग-चक्र-तनुमल-हरिद्रारागैः सदृशः लोभः कृमिराग किरमजीरंग, चक्रमल गाडीका पइएका मल, ननुमल, शरीरमल, हरिद्राराग हलदरंग इन समान जु है लोभ सो जीवको चतुर्गत्युत्पादकः क्रमतः। भावार्थ -अनन्तानुबन्धी लोभ किरमजी रंग समान जीवको नरकगतिविषं उपजावे है। अप्रत्याख्यान लोभ चक्रके मल समान तिर्यंचगतिविष उपजावे है। प्रत्याख्यान लोभ शरीरमल समान जीवको मनुष्यगतिविर्षे उपजावे है। संज्वलनलोभ हलदरंगसमान जीवको देवगतिविष उपजावे है। अथ निरुक्तिपूर्वक कषायको अर्थ कहै हैं सम्मत्त-देस-सयल चरित्त-जहखादचरणपरिणामे । ' घादंति वा कसाया चउ-सोल-असंखलोगमिदा ॥६१॥ सम्यक्त्व-देश-सकलचारित्र-यशाख्यातचरणपरिणामान् कषन्ति नन्ति वा कषायाः। सम्यक्त्वपरिणाम देशसंयमपरिणाम सकलसंयमपरिणाम यथाख्यातपरिणाम इस चार प्रकार चारित्रपरिणामहुको आच्छादै हैं तातें कषाय कहिए है। सम्यक्त्वके परिणामहुको अनन्तानुबन्धी आच्छादै, अप्रत्याख्यान अणुवतको आच्छादै, प्रत्याख्यान महाव्रतको आच्छादै, संज्वलन यथाख्यातको आच्छादै। जातें जीवके गुणको विनाशें, तातें ए कषाय कहिए । एते चतुः-घोडश-असंख्यातलोकमिताः, ए कषाय चार प्रकार है-अनन्तानुबन्धी १ अप्रत्याख्यान २ प्रत्याख्यान ३ संज्वलन ४ इन भेद करि । बहुरि सोलह प्रकार है १६-अनन्तानुबन्धी आदिसों क्रोध मान माया लोभके लगाएतें । बहुरि एई कषाय असंख्यात लोकप्रमाण है-जाते एक-एक कपाय असंख्याते असंख्याते प्रकार है-तीत्र तीव्रतर, मध्यम मध्यमतर, मन्द मन्द तर इत्यादि भेदहु करि । अरु जो अनन्त जीवहुकी अपेक्षा देखिए तो अनन्तानन्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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