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________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन ११६ आवरणते चार प्रकार दर्शनावरणीयकर्म जानना। ततः पञ्च निद्रादर्शनावरणं प्रभणिष्यामः तिसतें आगे हम जु हैं नेमिचन्द्राचार्य ते पंचप्रकार दर्शनावरणीयकर्म कहेंगे। ___ भावार्थ-दर्शनावरणीयकर्म नव प्रकार है । तामें चार प्रकार कह्या, पंच प्रकार निद्रादर्शनावरणीय अब कहैं हैं। अह थीणगिद्धि णिहाणिद्दा य पयलपयला य । __णिद्दा पयला एवं णवभेयं दसणावरणं ॥४८॥ अथ स्त्यानगृद्धिः निद्रानिद्रा तथैव प्रचलाप्रचला निद्राप्रचला च एवं नवभेदं दर्शनावरणं ज्ञेयम् । स्त्यानगृद्धि निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला निद्रा अरु प्रचला ये पंच प्रकार निद्रा है। इनहिं मिलाये दर्शनावरणीयकर्म नव प्रकार जानना। स्त्याने स्वप्ने यया वीर्यविशेषप्रादुर्भावः सा स्त्यानगृद्धिः जिसके उदयते स्वप्नविर्षे विशेष बल प्रगट होय है सो स्यानगृद्धि निद्रा जाननी। यदुदयान्निद्राया उपरि उपरि प्रवृत्तिः सा निद्रानिद्रा, जिसके उदयतें निद्राके ऊपर फेर भी निद्रा आवे सो निद्रानिद्रा कहिए। यदुदयादात्मा पुनः पुनः प्रचलयति सा प्रचलाप्रचला, जिसके उदयतें आत्मा बारंबार चले सो प्रचलाप्रचला जाननी। यदुदयान्मदखेदक्लमविनाशार्थ शयनं तन्निद्रा, जिसके उदयतें मद खेद थकान आदिके दूर करनेको सोइए सो निद्रा जाननी। या आत्मानं प्रचलयति सा प्रचला, जिसके उदयतें जीव बैठ्या बैठ्या ऊँधै, हालै सो प्रचला जाननी । ऐसे नव प्रकार दर्शनावरणीयकर्म पंच निद्रा मिलि करि भया। अथ स्त्यानगृद्धि आदिकहु कालविशेषकरि कहै हैं थीणुदएणुढविदे सोवदि कम्मं करेदि जंपदि वा । णिद्दाणिदएण य ण दिद्विमुग्धाडिदुं सक्को ॥४६॥ स्त्यानगृद्ध युदयेन उत्थापिते सत्यपि स्वपिति कर्म करोति जल्पति च स्त्यानगृद्धिके उदयतें उठावते संते भी सोवे अरु काम करे अरु बोले । भावार्थ-स्त्यानगृद्धिनिद्राके उदय सोवते संते बहुल बल होय, अरु दारुण कर्म करे १। निद्रानिद्रोदयेन दृष्टिं उद्घाटयितुं न शक्नोति, निद्रानिद्राकर्मके उदय दृष्टिको उघाडि न सके। भावार्थ-जिस जीवको निद्रानिद्रा कर्मका आवरण है सो भी बहुत प्रकारकरि जगाइए तो भी नेत्रनिको खोलि न सके २ । पयलापयलुदएण य वहेदि लाला चलंति अंगाई। . णिहुदए गच्छंतो ठाइ पुणो वइसदि पडेदि ॥५०॥ ... प्रचलाप्रचलोदयेन लाला वहन्ति, पुनः अङ्गानि चलन्ति प्रचलाप्रचला निद्राके उदयतें मुखतें लाल बहे अरु सोवते अंग हाथ पांव चल्या करे ३ । निद्रोदयेन गच्छन् तिष्ठति, स्थितः उपविशति पतति च, निद्राकर्मके उदय है जो सो जगाइ करि ले चलिए तो भी खड़ा होय रहे, बहुरि बैठे अरु पड़ि जाय है। .. पयलुदएण य जीवो ईसुम्मीलिय सुवेदि सुत्तो वि। . ईसं ईसं जाणदि मुहं मुहं सोवदे मंदं ॥५१॥ प्रचलोदयेन जीवः ईषदुन्मील्य स्वपिति, प्रचलाकर्मके उदयतें जीव थोड़ी-सी आँ खि खोलि सोवै । सुप्तोऽपि ईषदीषज्जानाति सोवते संते भी थोड़ी-थोड़ी जानै, मुहुर्मुहुः मन्द स्वपिति बारंबार थोड़ा सोवै । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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