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________________ ११८ अथ चतुर्भेद दर्शनके कथ्यते- कर्म प्रकृति चक्खूण जं पयासह दीसह तं चक्खुदंसणं विंति । सेसिंदियप्पयासो णायव्वो सो अचक्खु ति ॥४४॥ चक्षुषा यत् प्रकाश्यते दृश्यते तद् आचार्याः चक्षुर्दर्शनं ब्रुवन्ति । भावार्थ - आत्मा के अनन्तगुणमें एक दर्शन गुग है तिस दर्शन गुणकरि संसारी जीव चक्षुर्दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशमतें नेत्रद्वारकरि रूपवन्त पदार्थ दृष्टिगोचर देखे है, तिसका नाम चक्षुर्दर्शन कहिए । वा शेषेन्द्रियप्रकाशः जो पाँच इन्द्रियहुका प्रकाश है सो अचक्षुः इति ज्ञातव्यः । भावार्थ - नेत्र बिना स्पर्शन रसनप्राण श्रोत्र मन इन करि संसारी जीव अचक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मके क्षयोपशमतें पदार्थहुको प्रकट करै सामान्य रूप सो अचक्षुर्दर्शन कहिए । इहां कोई प्रश्न करे है - दर्शन तो वस्तुको नेत्रहुकरि हो है, इहां दर्शन स्पर्शनादि पंच इन्द्रियहुकर भी को सु काहेतें ? ताको उत्तर के जैनविषे दर्शन सामान्यज्ञानको कहै हैं यातें इन पंच इन्द्रियहुको सामान्य ज्ञानकों दर्शन कहे हैं । अथ अवधिदर्शन स्वरूपको कहै हैं परमाणु आदिआई अंतिमखंधं ति मुत्तिदव्वाइं । तं ओहिदंसणं पुण जं परसह ताई पच्चक्खं || ४५॥ परमाणु आदि लेकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्तं अन्तके महास्कन्ध मेरु आदिक पर्यन्त यानि मूर्तिद्रव्याणि तानि प्रत्यक्ष पश्यति तद् आचार्याः अवधिदर्शनं ब्रुवन्ति । भावार्थअवधिदर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशमतें संसारी जीवके अवधिदर्शन हो है, सो परमाणु तें लेकर कत्र्यणुक चतुरणुक इस भाँति महास्कन्ध पर्यन्त लोकके विषे समस्त मूर्त्तद्रव्यको प्रत्यक्ष देखे है । अथ केवलदर्शन के स्वरूपको कहै हैं Jain Education International. बहुवि बहुप्पयारा उजवा परिमियम्मि खेत्तम्मि | लोयालोयवितिमिरो जो केवलदंसणुजोवो ||४६॥ बहुविध बहुप्रकारा उद्योता: बहुविध तीव्र मन्द आद्यन्त मध्य इत्यादि भेद बहुप्रकार चन्द्रमा सूर्य रत्न अग्नि आदि भेदकर ऐसे जु है उद्योत इस जगतविषे ते परमिते क्षेत्रे सन्ति मर्यादिका भवन्ति । भावार्थ - चन्द्रमा सूर्यादिकको उद्योत प्रमाण लिए है । यः केवलदर्शनोद्योतः स लोकालोकवितिमिरः अरु जो लोकालोकप्रकाशक है स केवलदर्शनोद्योतः सो केवलदर्शनको उद्यत जानना । भावार्थ - केवलदर्शन समस्त लोकालोक प्रकाशक है एक समयविषे एक ही बार । अथ दर्शनावरणीय कर्म की नव प्रकृति कहिए है चक्खु अचक्खू - ओही- केवल आलोयणाणमावरणं । तत्तो भणिस्सामो पण णिद्दा दंसणावरणं ||४७॥ चक्षुरचक्षुर धवलालोकानी आवरणं चक्षुदर्शनावरणीय १ अचक्षुदर्शनावरणीय २ अवधिदर्शनावरणीय ३ केवलदर्शनावरणीय ४ पूर्व ही कह्यो जो चार प्रकार दर्शन तिसके For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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