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प्रकृतिसमुत्कीर्तन
१०३ है इस वास्ते द्वयर्धगुणहानिमात्रसत्ता सदा रहे है। आगे इसको सामान्य यन्त्र लिखिए है। विशेष त्रिकोणयन्त्र है।
२८८ १४४ ७२ - ३६ १८ ३२० १६० ...८० ४० ३५२ १७६ . ८८ ४ ४ २२ ११ ३८४ १९२, ९६ ४८ २४ १२ ४१६ २०८ १०४ . ५२ २६ १३ ४४८ २२४ ११२ ५६ २८ १४ ४८० २४० १२० ६ ० ३० १५ ५१२ २५६ १२८. ६४ ३२
सो कर्म के प्रकार है, आगे यह कहे हैं
कम्मत्तणेण एकं दव्वं भावो त्ति होइ दुविहं खु ।
पुग्गलपिंडो दव्यं तस्सत्ती भावकम्मं तु ॥६॥ तत्कर्म कर्मत्वेन एकम् । कया जात्यपेक्षया। पुनः तदेव कर्म द्रव्य-भावभेदेन द्विविधं भवेत् । बहुरि सोई कर्म द्रव्य-भाव भेद करि दोइ प्रकार है । द्रव्यकर्म कहा कहिए ? पुद्गलपिण्ड ज्ञानावरणादि अष्ट प्रकार कर्मजातिकी वर्गणाओंका पिण्ड सो द्रव्यकर्म कहिए । भावकम कहा कहिए ? तु पुनः तच्छक्तिः भावकर्म । तस्य ज्ञानावरणादिकर्मकी जु है शक्ति सुखदुःखादिककी देनवाली सो भावकर्म कहिए। जैसे मिश्री तो द्रव्य है। ता मिश्रीविर्षे जु है मिश्रत्व मिष्टशक्ति सो भाव है । अरु जैसे निम्ब द्रव्य है, ता निम्बविषं जु है कटुकता सो भाव है । तैसे जु है पुद्गलपिण्ड द्रव्यकर्म तिसका जु है शक्ति सुख-दुःखकी उपजावनहारी शक्ति सो भाव कहिए।
तं पुण अट्ठविहं वा अडदालसयं असंखलोगं वा।
ताणं पुण घादि त्ति य.अघादि ति य होंति सण्णाओ ॥७॥ पुनः तत्कर्म अष्टविधम् । बहुरि सो कर्म आठ प्रकार है। वा अडदालसयं अष्टचत्वारिंशत् । अथवा सोई कम एक सौ अड़तालीस प्रकार है । अथवा असंख्यात लोकप्रमाण है । तेषां मध्ये पुनः कानिचित् घातिसंज्ञा, कानिचित् अघातिसंज्ञा भवन्ति । तिन कर्महुके मध्य केई कर्म घातिया है, केई अघातिया है। ... आगे यद्यपि असंख्यातलोकमानं कहिए असंख्यातलोकप्रमाण कर्महु की जाति है, . तथापि अष्ट मूलप्रकृति तावत् कहिए है
णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीय मोहणीयं । आउगं णामं गोदंतरायमिदि अट्ठ पयडीओ ॥८॥
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