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________________ १०२ कमप्रकृति है-नाना कहिए अनेक प्रकारकी है गुणहानि जा विर्षे, सो नाना गुणहानि कहिए है । गुणहानि कहा कहिए ? जो पहिले-पहिले समयहूतें अगले-अगले समयविर्षे कछू गिनतीकरि वर्गणा घाटि खिरें; सो गुणहानि कहिए। एक कर्म स्थितिकी असंख्याती नानागुणहानि हैं, जातें नानागुणहानिको काल एक समय है। अन्तर्मुहूर्त अरु पल्यके असंख्यातवें भाग, इनके असंख्याते समय हैं तातें असंख्याती जाननी । आगे एही अर्थ अंकस्थापनाकी निसानी करि सिद्धान्तप्रमाण प्रकट लिखिए है-एक मोहनीयकर्म के उदयपर दृष्टान्तकरि दिखायतु हैं, तिसकी भाँति सब ऊपर जानियहु। मोहकमकी स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है तिसकी स्थापना अबाधाकाल छोड़िके अड़तालीस ४८ समय कीजे । असंख्याती नानागुणहानिकी छह ६ नानागुणहानि कल्पिए । एक-एक नानागुणहानिविर्षे आठ-आठ गुणहानि स्थापना कीजे । मोहनीयकर्मकी अनन्तवर्गणाके समयप्रबद्धकी कल्पना त्रेसठिसै ६३०० वर्गणा कीजे ऐसी स्थापना कीजे समझने के वास्ते । पहिली गुणहानिविर्षे बत्तीससै ३२०० वर्गणा खिरें । दूसरीविर्षे १६०० तीसरीविर्षे ८०० चौथीविषे ४०० पाँचवींविर्षे २०० छठीवि १०० । इस भाँति नानागुणहानि प्रति आधा-आधा कम होय खिरे है, यह द्वयर्धगुणहानि है । पहिली नानागुणहानिविर्षे बत्तीससै वर्गणा किस भाँति खिरै, यह बात कहिए है एक नाना गुणहानिविर्षे आठ गुणहानि हैं। तिनमें भिन्न-भिन्न किमी होय-होय खिरैः हैं, तिन सबको जोड़ बत्तीससै हो है। सोई कहिए है--पहिली गुणहानिविर्षे ५१२ पांचसै बारह खिरौं । आगे-आगे गुणहानिवि बत्तीस-बत्तीस किमी होय खिरै हैं-४८०।४४८१४१६। ३८४१३५२।३२०।२८८। पहिली नानागुणहानिवि इस भाँति । गुणहानि-गुणहानिविपें आठ समयमें खिरे हैं। दूसरी गुणहानिवि १६०० सोहलसै खिरै हैं। इस वि पुनि आठ गुणहानि हैं। तहां पुनि भिन्न-भिन्न किमी होय खिरै हैं । पहिली गुणहानिविर्षे २५६ खिरै हैं । आगे गुणहानिवि सोलह-सोलह वर्गणा घटावणी ।२४०।२२४।२०८।१६२।१७६।१६०।१४४। इस भाँतिसो अनुक्रम जानिबो। तीसरी नानागुणहानिविर्षे ८०० खिरै हैं। तिसकी आठ गुणहानिविर्षे पहिले १२८ एकसौ आठवीस खिरें। पीछे आठ-आठ घटावने ॥१२०।११२।१०४।९६। ८८८०७२। इस भाँति चौथी नानागुणहानिविर्षे ४०० खिरें। तिनकी आठगुणहानिविर्षे पहिले ६४ चौसठ खिरें। पीछे चार-चार घटावने ।६०।५६।५२।४८।४४।४०।३६। पांचवीं नानागुणहानिविर्षे २०० खिरै । तिनको आठ गुणहानिवि पहिले ३२ खि। पीछे दोयन्दोय घटाउने ३०।२८।२६।२४।२२।२०।१८। इस भाँति छठी नानागुणहानिमें सौ १०० खिरे हैं । तिसकी आठ गुणहानिविर्षे पहिले सोलह १६ खिरें। आगे एक-एक घटावनें १५।१४।१३।१२।११।१०।९ इस भाँति सर्वकर्मकी त्रेस ठिसै वर्गणा छह स्थानकविर्षे आठ-आठ अन्तर भेद लिये अड़तालीस समयकी थिति निविर्षे मोहनीयकर्म अबाधाकाल बिना पहिले समयतें लेकरि खिरै । इस ही भाँति और कर्मकी भी वर्गणा निझरै हैं । इस ही भाँति सिद्धान्त विपें कही है-जीवके समयप्रबद्धकी द्वयर्धगुणहानि मात्र सत्ता सदाकाल है । जितनी वर्गणा अतीतकाल पहिली-पहिली नानागुणहानिविषे रस लेकरि तिनते आधी-आधी वर्गणा वर्तमानकी नानागुणहानिविषं रहे १. भाषा-वचनिकाकारने पांचवीं गाथाका स्पष्टीकरण करते हए जो कुछ लिखा है, उससे ज्ञात होता है कि उन्हें गुणहानि और नानागुणहानिका अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाया था। परिणामस्वरूप उन्होंने निषेकको गुणहानि और एक गुणहानिको नानागुणहानि पदका प्रयोग किया है। इसी प्रकार द्वघर्धगणहानि शब्दके अर्थ करनेमें विपर्यास हुआ है । इसलिए यह पूरा विवेचन विचारणीय हो गया है। इन दोनों गाथाओंका आगमानुकूल स्पष्टीकरण पांचवीं गाथाके विशेषार्थमें संक्षेपसे कर दिया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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