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________________ कर्मप्रकृति पाणबधादिसु रदो जिणपूजा-मोक्खमग्गविग्घयरो। अजेइ अंतरायं ण लहइ जं इच्छियं जेण ॥१६१॥ इति श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिविरचितकर्मप्रकृतिग्रन्थः समाप्तः । द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय-[ पञ्चेन्द्रिय- ] प्राणिबधेषु स्व-परकृतेषु प्रीतः, जिनपूजायाः रत्नत्रयप्राप्तेश्च स्वान्ययोर्विघ्नकरो यः स जीवस्तदन्तरायकर्म अर्जयति येनान्तरायकर्मोदयेन यदीप्सितं तन्न लभते ॥१६१॥ इति सिद्धान्तज्ञानचक्रवर्तिश्रीनेमिचन्द्रविरचितकर्मप्रकृतिबन्धनामग्रन्थस्य टीका समाप्ता। विशेषार्थ--जो सदा ही अरहन्त, सिद्ध, चैत्य, गुरु और प्रवचनकी भक्ति करता है, नित्य सर्वज्ञ-प्रणीत आगम-सूत्रोंका स्वयं अभ्यास करता है और दूसरोंको कराता है, जगत्को यथार्थ तत्त्वका उपदेश देता है, आगम-वर्जित तत्त्वोंका न स्वयं श्रद्धान करता है और न अन्यको भी श्रद्धानके अभिमुख करता है, उत्तम, जाति, कुल, रूप, विद्या आदिसे मण्डित होनेपर भी उनका अहंकार नहीं करता, और न हीन जाति-कुलादिवालोंका तिरस्कार ही करता है, परनिन्दासे दूर रहता है, भूल करके भी दूसरोंके बुरे कार्योंपर दृष्टि नहीं डालता, किन्तु सदा ही सबके गुणोंको ही देखता है और गुणीजनोंके साथ अत्यन्त विनम्र व्यवहार करता है, ऐसा जीव उच्चगोत्र कर्मका बन्ध करता है। किन्तु इनसे विपरीत आचरण करनेवाला जीव नीचगोत्र कर्मका बन्ध करता है । अर्थात् जो सदा अहंकारमें मस्त रहता है, दूसरोंके बुरे कार्योपर ही जिसकी दृष्टि लगी रहती है, दूसरोंका अपमान और तिरस्कार करने में अपना बडप्पन समझता है, देव, गुरु शास्त्रादिकी भक्ति विनयादि नहीं करता और आगमके अभ्यासको बेकार समझता है । ऐसा जीव नीच योनियों और कुलोंमें उत्पन्न करनेवाले नीचगोत्र कर्मका बन्ध करता है। अब अन्तराय कर्मके बन्ध-कारण बतलाते हैं जो जीव प्रागियोंके घातमें संलग्न हैं, जिनपूजन और मोक्षमार्गमें विघ्न करनेवाला है, वह उस अन्तराय कर्मका उपार्जन करता है कि जिसके कारण वह अभीष्ट वस्तुको नहीं पा सकता॥१६१॥ विशेषार्थ-जो जीव पाँचों-पापोंको करते हैं, महा आरम्भी और परिग्रही हैं, तथा जिन-पूजन, रोगी साधु आदिको वैयावृत्त्य, सेवा-उपासनादि मोक्षमार्गके साधन-भूत धार्मिक क्रियाओंमें विघ्न डालते हैं, रत्नत्रयके धारक साधुजनोंको आहारादिके देनेसे रोकते हैं, तथा किसी भी प्रकारके खान-पानका निरोध करते हैं, उन्हें समयपर खाने-पीने और सोने बैठने या विश्राम नहीं करने देते, जो दूसरेके भोगोपभोगके सेवनमें बाधक होते हैं, दूसरेको आर्थिक हानि पहुंचाते है और उत्साह-भंग करते हैं, दान देनेसे रोकते हैं, दूसरोंकी शक्तिका मर्दन करते हैं, उन्हें निराश और निश्चेष्ट बनानेका प्रयत्न करते हैं, अथवा कराते हैं, वे जीव नियमसे अन्तराय कमका तीव्र बन्ध करते हैं। इस प्रकारसे बाँधे गये अन्तराय कर्मका जब उदय आता है, तब यह संसारी जीव अपनी इच्छाके अनुकूल न आर्थिक लाभ ही उठा पाता है, न भोग-उपभोग ही भोग सकता है और न इच्छा करते हुए भी किसीको कुछ दान ही दे ३. पञ्चसं० ४, २१४ । गो० क० ८१० । 3. ज नेमिचन्द्रविरचित कर्मकाण्डस्य टीका। ब टीका भट्टारकश्रीज्ञानभूषणकृता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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