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________________ प्रदेशबन्ध तित्थयरसत्तकम्मा तदियभवे तब्भवे हु सिज्भेदि । खाइयसम्मत्तो पुण उक्कस्सेण दु चउत्थभवे ॥ १५८ ॥ तीर्थङ्करसवकर्मणि सति भव्यजीवः तृतीयभवे सिद्ध्यति सिद्धिं प्राप्नोति हु स्फुटं । कश्चिन्मनुष्यः 1 तद्भवे तज्जन्मनि सिद्ध्यति । पुनः क्षायिकसम्यक्त्ववान् जीवः तद्भवे मोक्षं गच्छति, अथवा तृतीयभवे सिद्ध्यति सिद्धिं प्राप्नोति । हु उत्कृष्टेन चतुर्थे भवे सिद्ध्यति, चतुर्थभत्रं नाक्रामतीत्यर्थः ॥ १५८ ॥ अरहंतादिसु भत्तो सुत्तरुई पढणमाण गुणही | बंदि उच्चागदं विवरीओ बंधदे इदरं ॥ १५६ ॥ यः अर्हदादिषु भक्तः गणधराद्युक्तागमेषु श्रद्धावान् पडनं पठनं माणु इति मानं ज्ञानं गुणः विनयादिः एतेषां प्रेक्षकः दर्शी अध्ययनार्थं विचारविनयादिगुणदर्शीत्यर्थः । स जीवः उच्चैर्गोत्रं बध्नाति । तद्विपरीतः योऽर्हदादिषु भक्तिरहितः आगमसूत्रस्योपरि अरुचिः, अध्ययनार्थविचार विनयादिगुणविवर्जितो जीवः इतरत् नीचगोत्रं बध्नाति ॥ १५९ ॥ पर अप्पाणं निंदा पसंसणं णीचगोदबंधस्स | सदसदगुणाणमुच्छादण मुब्भावणमिर्दि होदि || १६०॥ परेषां निन्दा, आत्मनः प्रशंसा, अन्येषां सन्तोऽपि ये ज्ञानादिगुणा:, तेषामाच्छादनम्, स्वस्यासतानामविद्यमानगुणानां प्रकाशनम् एतानि चत्वारि नीचगोत्रबन्धस्य कारणानि भवन्ति ॥ १६० ॥ ८१ स्तवन, वन्दन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छहों आवश्यकों का नियमपूर्वक विधिवत् विना किसी नागाके पालन करना आवश्यक क्रिया- अपरिहानि है १४ । ज्ञान, दान, पूजा, और तप आदिके अनुष्ठान द्वारा जिनधर्मका प्रकाश संसार में फैलाना मार्गप्रभावना १५ । साधर्मी में गो-वत्स के समान अकृत्रिम स्नेह रखना प्रवचनवत्सलता है १६ । उक्त सोलह भावनाओंके द्वारा यह जीव त्रिलोक- पूजित तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध करता है । अब ग्रन्थकार तीर्थंकर प्रकृतिकी सत्तावाला तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव संसार में अधिक से अधिक कितने भव तक रह सकता है इस प्रश्नका उत्तर देते हैं तीर्थंकर प्रकृति की सत्तावाला जीव उसी भवमें या तीसरे भवमें सिद्धिको प्राप्त करता है अर्थात् मोक्षको पा लेता है । क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उत्कृष्टतः चौथे भव में सिद्धिको प्राप्त करता है ।। १५८|| दोनों प्रकारके गोत्रकर्मके बन्धके कारण बतलाते हैं - जीव अरहंत आदि पंच परमेष्ठियोंका भक्त हो, जिनेन्द्र-कथित आगमसूत्र के पठनपाठनमें प्रीति रखता हो, तत्त्वचिन्तन करनेवाला हो, अपने गुणोंका बढ़ानेवाला हो ऐसा जीव उच्च गोत्रका बन्ध करता है और इससे विपरीत चलनेवाला नीचगोत्र कर्मका बन्ध करता है ।। १५६ || अब नीचगोत्र कर्मके बन्धके कारणोंको और भी विशेष रूप से बतलाते हैं परायी निन्दा करना और अपनी प्रशंसा करना, दूसरेके सद्गुणोंका आच्छादन करना और अपने भीतर अविद्यमान भी गुणोंका उद्भावन करना । इन कारणोंसे भी नीचगोत्रका बन्ध होता है ॥ १६०॥ १. ब पढगंमाणु । आ'पठनमान' इति पाठः । २. पञ्चसं ४, २१३। गो० क० ८०९ । ३. त पसंसणा । ४. ब मुब्भावणमयि । 1. व प्राणी । 2. ब प्राणी । ११ Jain Education International. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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