SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ प्रदेशबन्ध मण-वयण-कायवक्को माइल्लो गारवेहिं पडिबद्धो । असुहं बंधदि णामं तप्पडिवक्खेहिं सुहणामं ॥१५३॥ यो मनोवचनकायैर्वक्रः मायावी रसगारव-ऋद्धिगारव-सातगारवेति गारवत्रयप्रतिबद्धः स जीवो नरकगति-तिर्यग्गत्याऽऽद्यशुभं नामकर्म बन्नाति । यस्तत्प्रतिपक्षपरिणामः मनोवचनकायैः सरलः निष्कपटी गारवत्रयरहितः [स] जीवः शुभं नामकर्म मनुष्य-देवगत्यादिकं बध्नाति ॥१५३॥ अथ तीर्थङ्करनामकर्मणः कारणषोडशभावनां गाथापञ्चकेनाऽऽह दंसणविसुद्धि विणए संपण्णत्तं च तह य सीलवदे। अणदीचारोऽभिक्खं णाणुवजोगं च संवेगो ॥१५४॥ सत्तीदो चाग-तवा साहुसमाही तहेव णायव्वा । 'विजावच्चं किरिया अरहंताइरियबहुसुदे भत्ती ॥१५॥ पवयण परमा भत्ती आवस्सयकिरियअपरिहाणी य । मंग्गपहावणयं खलु पवयणवच्छल्लमिदि जाणे ॥१५६॥ . अब शुभ और अशुभ नामकर्मके बन्धके कारण बतलाते हैं जो जीव मन वचन कामसे कुटिल हो, कपट करनेवाला हो, अपनी प्रशंसा चाहनेवाला तथा करनेवाला हो, ऋद्धिगारव आदि तीन प्रकारके गारवसे युक्त हो, वह नरकगति आदि अशुभ नामकर्मको बाँधता है। और जो इनसे विपरीत स्वभाववाला हो अर्थात् सरल स्वभावी हो, निष्कपट हो, अपनी प्रशंसाका इच्छुक न हो और गारव-रहित हो ऐसा जीव देवगति आदि शुभनामकर्मका बन्ध करता है ॥१५३॥ . विशेषार्थ-जो मायावी है, जिसके मम-वचन-कायकी प्रवृत्ति कुटिल है, जो रसगारव सातगारव और ऋद्धिगारव इन तीनों प्रकारके गारवों या अहंकारोंका धारक है, नाप-तौलके बाट हीनाधिक वजनके रखता है और हीनाधिक लेता-देता है, अधिक मूल्यकी वस्तुमें कम मूल्यकी वस्तु मिलाकर बेंचता है, रस-धातु आदिका वर्ण-विपर्यास करता है, उन्हें नकली बना करके बेंचता है, दूसरोंको धोका देता है, सोने-चाँदीके आभूषणोंमें ताँबा आदि खार मिलाकर और उन्हें असली बताकर व्यापार करता है, व्यवहार में विसंवादनशील एवं झगड़ालू मनोवृत्तिका धारक है, दूसरोंके अंग-उपांगोंका छेदन-भेदन करनेवाला है, दूसरोंकी नकल करता है, दूसरोंसे ईर्ष्या रखता है; और दूसरोंके शरीरको विकृत बनाता है, ऐसा जीव अशुभ नामकर्मका बन्ध करता है । किन्तु जो इन उपर्युक्त कार्योंसे विपरीत आचरण करता है, सरलस्वभावी है, कलह और विसंवाद आदिसे दूर रहता है, न्यायपूर्वक व्यापार करता है और . ठीक-ठीक नाप-तौलकर लेता-देता है । वह शुभ नामकर्मका बन्ध करता है। यहाँ शुभ नामकर्मसे अभिप्राय नामकर्मकी पुण्य प्रकृतियोंसे है और अशुभनामकर्मसे अभिप्राय नामकर्मकी पापप्रकृतियोंसे है। • अब नामकर्मकी प्रकृतियोंमें जो सर्वोत्कृष्ट है ऐसी तीर्थकर प्रकृतिके बन्धके कारणोंको बतलाते हैं. १ दर्शन-विशुद्धि, २ विनय-सम्पन्नता, ३ निरतिचार व्रत-शीलधारणता, ४ आभीक्ष्ण १. पञ्चसं० ४, २१२ । गो० ८०८ । २. ब सीलवदेसु । ३. त वेज्जावच्चं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy