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________________ कर्मप्रकृति अणुवद-महव्वदेहि य बालतवाकामणिज्जराए य । देवाउगं णिबंधइ सम्माइट्ठी य जो जीवो' ॥१५२॥ यः सम्यग्दृष्टिः जीवः स केवलसम्यक्त्वेन साक्षादणुव्रतैः महावतैर्वा देवायुर्बध्नाति । यो मिथ्यादृष्टिः जीवः स उपचाराणुव्रतमहाव्रतैः बालतपसा अकामनिर्जरया' च देवायुर्बध्नाति ॥१५२॥ पर भी मानवोचित दया, क्षमा आदि गुणोंसे युक्त है बालुकी रेखाके सदृश कपायवाला है, न अति संक्लेश परिणामी है। और न अति विशुद्ध परिणामी ही है, किन्तु सरल है, और सरल ही कार्योंको करता है, ऐसा जीव मनुष्यायुका बन्ध करता है। अब देवायुके बन्धके कारणोंको बतलाते हैं जो जीव अणुव्रत या महाव्रतसे संयुक्त है, बालतप और अकामनिर्जरा करनेवाला है, वह जीव देवायुका बन्ध करता है। तथा सम्यग्दृष्टि जीव भी देवायुको बाँधता है ॥१५२।। विशेषार्थ-जो पाँचों अणुव्रतों और सप्त शीलोंका धारक है, महाव्रतोंको धारणकर पटकायिक जीवोंकी रक्षा करनेवाला है, तप और नियमका पालनेवाला है, ब्रह्मचारी है, सरागभावके साथ संयमका पालक है, अथवा बाल तप और अकामनिर्जरा करनेवाला है, ऐसा जीव देवायुका बन्ध करता है। यहाँ बालतपसे अभिप्राय उन मिथ्या दृष्टि जीवोंके तपसे है, जिन्होंने कि जीव-अजीवतत्त्वके स्वरूपको ही नहीं समझा है, आपा-परके विवेकसे रहित हैं और अज्ञानपूर्वक अनेक प्रकार के कायक्लेशको सहन करते हैं। विना इच्छाके पराधीन होकर जो भूख-प्यास की और शीत-उष्णादिकी बाधा सहन की जाती है, उसे अकामनिर्जरा कहते हैं । कारागार ( जेलखाने ) में परवश होकर पृथ्वीपर सोनेसे, रूखे-सूखे भोजन करनेसे, स्त्रीके अभावमें विवश होकर ब्रह्मचर्य पालनेसे, सदा रोगी रहने के कारण परवश होकर पथ्य-सेवन करने और अपथ्य-सेवन न करनेसे जो कर्मोंकी निर्जरा होती है, वह अकामनिर्जरा है । इस अकामनिर्जरा और बालतपके द्वारा भी जीव देवायुका बन्ध करता है। जो सम्यग्दृष्टि जीव चारित्रमोहकर्म के तीत्र उदयसे लेशमात्र भी संयमको धारण नहीं कर पाते हैं, फिर भी वे सम्यक्त्व के प्रभावसे देवायुका बन्ध करते हैं। तथा जो जीव संक्लेश-रहित हैं. जल-रेखाके समान क्रोधकपायवाले हैं और उपवासादि करते हैं, वे भी देवायका बन्ध करते हैं । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि सम्यक्त्वी और अणुव्रती या महाव्रती जीव कल्पवासी देवोंकी ही आयुका बन्ध करते हैं। किन्तु अकामनिर्जरा करनेवाले जीव प्रायः भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंकी ही अधिकाँशमें आयु बाँधते हैं । बालतप करनेवाले जीव यथा सम्भव सभी प्रकारके देवोंकी आयुका बन्ध करते हैं किन्तु कल्पवासियोंमें विशिष्ट जातिके जो इन्द्र, सामानिक आदि देव हैं, उनकी आयुका बन्ध नहीं करते । . इस प्रकार आयुकर्मके चारों भेदोंके बन्धके कारण बतलाये गये । यहाँ इतना ध्यान रखना चाहिए कि सदा ही आयुकमका बन्ध नहीं होता है, अतः त्रिभाग आदि विशिष्ट अवसरोंपर जब आयुबन्धका काल आता है, उस समय उपर्युक्त परिणामोंमें-से जिस जाति के परिणास जीवके होंगे, उसी जाति को नरक, तिथंच आदिकी आयुका बन्ध होगा। १. पञ्चसं०४, २११। गो० क.८०७ । 1. ब मिथ्यादृष्टिपरिव्राजकतापसपञ्चाग्निसाधकजैनाभासाककाय केशैः बालतपसा। 2. राजभृत्यः कोऽपि पुमान् पृष्टबाहुबद्धः गाढबन्धनः सन् पराधीनपराक्रमः क्षुधातृषादिदुःखब्रह्मचर्यकष्टभूमिशयमादिक मलधारणं सहमानः महनेषु इच्छारहितः ईषत्कर्म निर्जरयति सा अकामनिर्जरा, तया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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