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________________ अनुभागबन्ध भागेन तिष्ठन्ति खलु स्फुटम् । तत्र लताभागमादिं कृत्वा दार्वनन्तकभागपर्यन्तं देशघातिन्यो भवन्ति । तत उपरिदार्वनन्तबहुभागमादिं कृत्वा अस्थि-शैलभागेषु सर्वत्र सर्वघातिन्यो भवन्ति ॥१४१॥ ____ तासां देशघाति-सर्व-घातिनां सर्वासां प्रकृतीनां मध्ये मिथ्यात्वस्य विशेषमाह देसो त्ति हवे सम्मं तत्तो दारु-अणंतिमे मिस्सं । सेसा अणंतभागा अद्वि-सिलाफड्डया मिच्छे ॥१४२॥ लताभागमादिं कृत्वा दार्वनन्तकभागपर्यन्तानि देशघातिस्पर्धकानि सर्वाणि सम्यक्त्वप्रकृतिर्भवति । शेषदावनन्तबहुभागेष्वनन्तखण्डीकृतेष्वेकखण्डं जात्यन्तरसर्वघातिमिश्रप्रकृतिर्भवति । शेषदार्वनन्तबहभागबहुमागाः अस्थिशिलास्पर्धकानि च सर्वघातिमिथ्यात्वप्रकृतिर्भवति ॥१४२॥1 गुडखंडसकरामियसरिसा सत्था हु किब-कंजीरा। विस-हालाहलसरिसा असत्था हु अघादिपडिभागा ॥१४३॥ अणुभागो गदो। अघातिनां द्वाचत्वारिंशत्प्रशस्तप्रकृतीनां ४२ प्रतिभागाः शक्तिविकल्पाः गुड-खण्ड-शर्करामृतसदृशाः खलु [ स्फुटम् ] | अप्रशस्तानां अघातिनां सप्तत्रिंशत्प्रकृतीनां ३७ निम्ब-काजीर-विष-हालाहलसदृशाः खलु स्फुटम् ।' उदयापेक्षया सर्वप्रकृतयः १२२ । तासु घातिन्यः प्रकृतयः ४७ । अघातिन्यः प्रकृतयः ७५ । पना है वैसे ही इनके फल देनेकी शक्ति में भी उत्तरोत्तर अधिकाधिक तीव्रता समझना चाहिए, इनमें दारुभागके अनन्तवें भाग तकका शक्तिरूप अंश देशघाती है और दारुके शेष बहुभागसे - भाग तकका ठाक्तिरूप अंश सर्वघाती है अथोत उसके उदय होनेपर आत्माक गुण प्रकट नहीं होते ॥१४१।। अब दर्शनमोहनीयके मिथ्यात्व आदि भेदोंमें जो विशेषता है उसे बतलाते हैं मिथ्यात्व प्रकृतिके लताभागसे लेकर दारुभागके अनन्तवें भागतक देशघाती स्पर्द्धक सम्यक्त्वप्रकृति के हैं। दारुभागके अनन्तबहुभागके अनन्तवेंभाग प्रमाण भिन्न जातिके सर्वघातिया स्पर्धक मिश्र प्रकृति अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्वके हैं । दारुके शेष अनन्त बहुभाग तथा हड्डी और शैलभागरूप स्पर्धक मिथ्यात्व प्रकृतिके जानना चाहिए ॥१४२॥ अब प्रशस्त और अप्रशस्तरूप अघातिया कौकी शक्तियोंको बतलाते हैं- अघातिया कर्मों में प्रशस्त (पुण्य ) प्रकृतियोंके शक्ति-अंश गुड़, खाँड, मिश्री और अमृतके समान तथा अप्रशस्त (पाप) प्रकृतियोंके शक्ति-अंश निम्ब (नीम ), कांजीर, विष और हालाहलके समान जानना चाहिए ॥१४३।। १. गो. क. १८१ । २. गो. क. १८४ । - 1. अामेर-भण्डारस्थप्रतौ टीकापाठोऽयम्-मिथ्यात्वप्रकृतौ देशघाति-पर्यन्तं प्रथमोपशमसम्यक्त्वपरिणामेन गुणसंक्रममागहारेण बंधापेक्षयैकविधा सत्त्वरूपमिथ्यात्वप्रकृतिः देशवाति-जात्यंतरसर्वघातिसर्वघातिभेदेन सम्यक्त्व-मिश्र-मिथ्यात्वप्रकृतिभेदेन त्रिधा कृतास्तीति लताभागमादिं त्रिधा कृस्वा दार्वनंतकमागपर्यन्तं देशघातिस्पर्द्धकानि सर्वाणि सम्यक्त्वप्रकृतिर्भवेत् । शेष दार्वनन्त बहुभागस्य अनन्तखंडानि क्रत्वा तत्रैकं खंडं जात्यंतरसर्वघाति-मिश्रप्रकृतिर्भवति। शेषाऽशेषा दार्वनंतबहमाग-बहमागाः अस्थिशिलास्पर्द्ध कानि च सर्वघाति-मिथ्यात्वप्रकृतिर्भवति । 2. यहाँ पर जो टीकामें संदृष्टि दी है, उसे परिशिष्टमें देखिये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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