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________________ कर्मप्रकृति संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धः दर्शनमोहमिथ्यात्वस्य कोडा० सा०७० चारित्रमोहस्य कोडा. सा० ४० । ज्ञा० द० वे० अं० कोडा० सा० ३० । नाम-गोत्रयोः कोडा० सा० २० । इति स्थितिबन्धप्रकरणं समाप्तम् अथानुभागबन्धस्वरूपं गाथाचतुष्कणाऽऽह सुहपयडीण विसोही तिव्वो असुहाण संकिलेसेण । विवरीदेण जहण्णो अणुभागो सवपयडीणं ॥१४॥ शुभप्रकृतीनां सातादीनां द्वाचत्वारिंशत्संख्योपतानां ४२ विशुद्धपरिणामेन विशुद्धिगुणेनोत्कृष्टस्य' पुरुषस्य तीव्रानुभागो भवति । अशुभप्रकृतीनां असातादीनां द्वयशीतिसंख्योपेतानां ८२ मिथ्यादृष्टयुत्कटस्य संक्लेशपरिणामेन च तीवानुभागो भवति । विपरीतेन संक्वेशपरिणामेन प्रशस्तप्रकृतीनां जघन्यानुभागी भवति, विशुद्धपरिणामेन अप्रशस्तप्रकृतीनां च जयन्यानुभागो भवति ॥१४॥ अनुभाग इति किम् ? इति प्रश्ने तत्स्वरूपं प्रथमतः घातिष्वाह सत्ती य लता-दारू-अट्ठी-सेलोवमा हु घादीणं । दारुअणंतिमभागो त्ति देसघादी तदो सव्वं ॥१४१॥ घातिनां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीयान्तरायाणां शक्तयः स्पर्धकानि लतादावस्थिशैलोपमचतुर्वि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध मूलग्रन्थमें गा० १२२ से लगाकर गा० १३८ तक बतलाया ही गया है। आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ३३ सागर है जो सर्वार्थसिद्धि या सातवें नरक जानेवाले मनुष्य और तिर्यंच जीव वर्तमान भवकी आयुके त्रिभागमें बाँधते हैं। आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त है, यह भी मनुष्य या तिर्यचके ही होता है। उपर्युक्त सर्व कथनकी अर्थ-बोधक संदृष्टियाँ संस्कृत टीकामें दी हुई हैं, जिन्हें पाठक सुगमतासे समझ सकेंगे । विस्तारके भयसे यहाँ नहीं दी जा रही हैं। इस प्रकार स्थितिबन्ध नामक द्वितीय प्रकरण समाप्त हुआ। अब अनुभागबन्धका सातावेदनीय आदिक शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशुद्धिसे होता है और असातावेदनीय आदि अशुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संक्लेशसे होता है । उक्त प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध विपरीत परिणामोंसे होता है अर्थात् शुभ प्रकृतियोंका संक्लेशसे और अशुभ प्रकृतियोंका विशुद्धि से जघन्य अनुभागबन्ध होता है । इस प्रकार सर्वप्रकतियों के अनुभागबन्धका नियम जानना चाहिए ॥१४॥ अब घाति और अघाति कर्मोंकी अनुभागरूप शक्तिका वर्णन करते हैं घातिया कर्मोंके फल देनेकी शक्ति लता ( वेलि ) दारु ( काठ), अस्थि ( हड्डी ) और शैल ( पत्थर ) के समान होती है अर्थात् लता आदिकमें जैसे उत्तरोत्तर अधिकाधिक कठोर १. त संकिलेस्सेज । २. पञ्चसं० ४, ४५१, गो० क. १६३ । ३. गो० क० १८० ।। __1. अनुमवस्वरूपं-ज्ञानावरणादिकर्मणां यस्तु रसः सोऽनुभवः, अध्यवसानैः परिणामैर्जनितः क्रोधमानमायालोमतीव्रादिपरिणामभावितः शुभः सुखदः, अशुभः असुखदः, स अनुभागबन्धः। यथाअजागोमहिष्यादीनां क्षीराणां तीव्रमन्दादिभावेन रसविशेषः, तथा कर्म पुद्गलानां तीव्रादिभावेन स्वगत. सामर्थ्यविशेषः शुभः अशुभो वा । 2. ब नोत्कटस्य । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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