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________________ कर्मकृत एकेन्द्रियादोनां दर्शन मोहस्योत्कृष्ट स्थितिबन्धं व्याख्याय चारित्रमोहनीय-ज्ञानावरण-दर्शनावरणवेदनीयान्तराय-नाम- गोत्राणां उत्कृष्टस्थितिबन्धः कियान् स्यादित्याशङ्कायां श्रीगोम्मटसारोक्तगाथामाहजदि सत्तरिस्स एत्तियमेत्तं किं होदि तीसियादीणं । इदि संपाते साणं इगि विगलेसु उभयठिदी 1 ॥१६॥ ६६ सप्ततिकोटी कोटिसागरोपमोत्कृष्टस्थितिक मिथ्यात्वस्य बन्धे सति यदि एकेन्द्रियः एकसागरोपममाः दर्शन मोहं बध्नाति तदा तीसियादीनां एकेन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धः कियान् लब्धो भवतीत्याह — चाली. सियानां चारित्रमोहनीयषोडशकषायाणां एकसागरोपमचतुः सप्तभागाः [ सा०] । तीसियानां असातवेदनीयैकान्नविंशतिघातिनां १९ एकसागरोपमत्रिसप्तभागाः [ सा०] । वीसियानां हुण्डासम्प्राप्तास्रपाटिकाऽरतिशोकषण्ढवेदतिर्यग्गति- तिर्यग्गस्यानुपूर्व्यद्वय भय द्विक- तैजसद्विकौदारिकद्विकाऽऽतपद्विकनी चैर्गोत्रत्रसचतुष्क-वर्ण चतुष्कागुरुल धूपघातपरघातोच्छ्वासैकेन्द्रियपञ्चेन्द्रिय स्थावरनिर्माणासद् गमनास्थिरषट्कानां ३९ एक-सागरोपमद्वि-सप्तभागा [ सा०] । पुनः अनेन सम्पातत्रैराशिकक्रमेण शेषाणां सागरपञ्चदश १५ कोटीकोटिस्थितिसात वेदनीय- स्त्रीवेद- मनुष्ययुग्मानां सागराष्टादश १८ कोटीको टिस्थिति वामन कीलितविकलत्रय-सूक्ष्मत्रयाणां सागरषोडश १६ कोटीकोटिस्थिति कुब्जकार्धनाराचयोः सागरचतुर्दश १४ कोटी कोटिस्थिति-स्वातिनाराचयोः सागरद्वादश १२ कोटीकोटि स्थितिन्यग्रोध-वज्रनाराचयोः सागरदश १० कोटी कोटिस्थितिसमचतुरस्र-वज्रवृषभनाराचयोः हास्यरत्युच्चैर्गोत्र-पुंवेद-स्थिरषट्कसद्गमनानां च उत्कृष्टस्थित्तिबन्धं एकेन्द्रियस्य साधयेत् । एवं पञ्चविंशतिं २५ पञ्चाशतं ५० शतं १०० सहस्रं १००० च सागरोपमाणि चतुरः फलराशीन् कृत्वा चालीसियादीनि पृथक-पृथक इच्छाराशीन् कृत्वा प्रमाणराशि प्राक्तनमेव कृत्वा लब्धानि द्रादीनां चालीसियादिगतोत्कृष्ट स्थितिबन्धप्रमाणानि भवन्ति । वह एक सागर-प्रमाण स्थितिको बाँधेगा, इससे अधिक नहीं। और वही जीव यदि मन्दसे भी मन्द संक्लेश से परिणत होकर मिथ्यात्वका बन्ध करे, तो पल्यके असंख्यातवें भागसे कम एक सागर - प्रमाण स्थितिको बाँधेगा, इससे कमकी नहीं । विकल-चतुष्क जीवोंका जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बतलाया गया है, उसमेंसे पल्यका संख्यातवाँ भाग कम कर देनेपर जो प्रमाण शेष रहता है, उतनी उतनी जघन्य स्थितिका वे जीव बन्ध करते हैं, उससे कमका नहीं । यह तो हुई केवल मिथ्यात्व के उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्धकी बात । किन्तु ये ही जीव मिथ्यात्व के सिवाय शेष कर्मोंकी कितनी उत्कृष्ट स्थिति और जघन्य स्थितिका बन्ध करते हैं ? इस प्रश्न के समाधान के लिए टीकाकारने गो० कर्मकाण्डकी 'जदि सत्तरिस्स' इत्यादि एक करणसूत्र-गाथा लिखकर त्रैराशिक विधिसे शेष कर्मोंकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति के निकालने का उपाय बतलाया है, जो कि इस प्रकार जानना चाहिए - यदि कोई एकेन्द्रिय जीव सत्तर कोड़ाकोड़ीसागरोपम उत्कृष्ट स्थितिवाले मिथ्यात्व की एक सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है, तो वही तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम उत्कृष्ट स्थितिवाले ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चारों कर्मोंकी कितनी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करेगा ? इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर तीन बटे सात सागर अर्थात् एक सागर के समान सात भाग करनेपर उनमें से तीन भाग-प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करेगा । इसी प्रकार त्रैराशिक विधि से निकालने पर वही जीव चालीस कोड़ाकोड़ी सागर - प्रमाण चारित्र मोहनीयका चार बटे सात सागर-प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करेगा । वही जीव बीस कोड़ीकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट स्थितिवाले नाम और गोत्रका दो बटे सात सागर- प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करेगा । हुआ मूलकर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका निरूपण । अब आगे टीकाकारने इसी ऊपर के यह 1. गो० क० १४५ । Jain Education International. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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