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________________ स्थितिबन्ध साणं पत्तो बादर एइंदिओ विसुद्धो य । बंधदि सव्वजहणं सग-सगउकस्सप डिभागे ॥ १३८ ॥ पूर्वगाथोकाभ्य एकोनत्रिंशत्प्रकृतिभ्यः २९ शेषैकनवति ९१ प्रकृतीनां मध्ये वैक्रियिकषट्क ६ मिथ्यात्वरहितानां चतुरशीति ८४ प्रकृतीनां जघन्यस्थितिं बादरैकेन्द्रियपर्याप्तो जीवस्तद्योग्य विशुद्ध एव बध्नाति स्व-स्वोत्कृष्ट प्रतिभागेन त्रैराशिकविधानेन इत्यर्थः ॥ १३८ ॥ तद्यथा एयं पणकदि पण्णं सयं सहस्सं च मिच्छवरबंधो । इगि विगलाणं बंधो अवरं पल्ला संखूण संखूणं ॥ १३६॥ ठिदिबंधो समत्तो । एकेन्द्रिया जीवाः मिध्यात्वोत्कृष्टस्थितिं दर्शन मोहमेकसागरोपमां बध्नन्ति । द्वीन्द्रियजीवाः मिथ्यास्वोत्कृष्टस्थितिं पञ्चविंशतिसागरोपमाणि २५ बध्नन्ति । त्रीन्द्रियप्राणिनः मिथ्यात्वोत्कृष्ट स्थिति पञ्चाशवसागरोपमाणि ५० बनन्ति । चतुरिन्द्रियजीवाः मिथ्यात्वोत्कृष्टस्थितिं शतसागरोपमाणि १०० बध्नन्ति । असंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवाः सहस्रसागरोपमाणि १००० बध्नन्ति दर्शन मोहोत्कृष्ट स्थितिबन्धम् । संज्ञिनः पर्याप्ता जीवा एव मिथ्यात्वोत्कृष्टस्थितिबन्धं सप्तति ७० कोटीकोटिसागरोपमाणि बध्नन्ति । 1 तज्जवन्यस्तु एकेन्द्रिय aauratri स्व-स्वोत्कृष्टात् २पल्यासंख्येय-पल्यसंख्येय भागोनक्रमो भवति ॥ १३९ ॥ ६५ उपर्युक्त उनतीस प्रकृतियोंके सिवाय इक्यानवे प्रकृतियाँ शेष रहती हैं । उनमें से वैक्रियिकपट्क और मिथ्यात्व इन सात प्रकृतियोंके विना शेष चौरासी प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितियोंको बादर पर्याप्त यथायोग्य विशुद्ध परिणामोंवाला एकेन्द्रिय जीव ही बाँधता है । उसका प्रमाण गणित के अनुसार त्रैराशिक विधिसे भाग करनेपर अपनी-अपनी स्थिति के प्रतिभागका जो प्रमाण आवे उतना जानना चाहिए || १३८ || अब उसी जघन्यस्थितिकी विधि और प्रमाणको दिखलाते हैं एकेन्द्रिय और विकलचतुष्क अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय ये पाँच प्रकारके जीव क्रमशः मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध एक सागर, पचीस सागर, पचास सागर, सौ सागर और एक हजार सागर - प्रमाण करते हैं । एकेन्द्रिय जीव अपनी उत्कृष्ट स्थिति में से पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम करनेपर जो प्रमाण बाकी रहता है उतनी जघन्य स्थितिको बाँधते हैं और विकल-चतुष्क जीव अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति में से पल्के संख्यातवें भाग कम करनेपर जो प्रमाण शेष रहता है उतनी जघन्य स्थितिको बाँधते हैं ||१३९ || Jain Education International विशेषार्थ - इस गाथामें एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों तक के मिथ्यात्व के उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्धका प्रतिपादन किया गया है। जिसका खुलासा यह है कि यदि एकेन्द्रिय जीव तीव्रसे तीव्र भी संक्लेश से परिणत होकर मिध्यात्वकर्मका बन्ध करे, तो ९ १. गो० क० १४३ । २. गो० क० १४४ । 1. ब मिथ्यात्वजघन्य स्थितिबन्धः । 2. एकेन्द्रियाणां दर्शनमोहस्य स्वोत्कृष्ट स्थितिबन्धाजघन्यबन्धः पल्यांसख्येयभागोनः । द्वीन्द्रियादिषु स्त्रोत्कृष्टस्थितिबन्धात्सल्यसंख्येयभागोनः । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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