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नयों के मूल निर्देश
मूलतः नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत, शब्द, समभिरूढ़ और भूत-ये सात नय प्रतिपादित किये जाते हैं।१०९ विषय विश्लेषण की दृष्टि से नय के अन्य भेद भी किये जाते हैं, जैसे-द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय। निश्चय नय और व्यवहार नय, द्रव्यनय और भाव नय, सभी नय जैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि को प्रस्तुत करते हैं।
आचार्यों ने सभी मदों की अपेक्षा से इन्हें भिन्न रूप में प्रस्तुत किये हैं। (१) ज्ञान नय (२) चरण नय
ज्ञान नय में ज्ञान की प्रधानता होती है और चरण नय में चारित्र की प्रधानता होती है। ज्ञान नय मोक्ष का साधन है, जिसमें हित, अहित पर विचार किया जाता है। चरण नय में अन्वय, व्यतिरेक की दृष्टि से समस्त पदार्थों का विवेचन किया जाता है। ज्ञान में सम्पूर्ण वस्तुओं को ग्रहण किया जाता है, जबकि चारित्र में ऐसा नहीं है ।११० निक्षेप
जैन सिद्धान्त में प्रमाण और नय की तरह निक्षेप का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। शीलंक आचार्य ने आचारांग वृतति का समग्र विवेचन निक्षेप पद्धति पर ही किया है; क्योंकि उनके सामने एकमात्र विकल्प यही था कि वे अच्छी तरह से अनुभव करते होंगे कि निक्षेप अर्थात् धरोहर या न्यास, वस्तु में भेद करने का उपाय है। इसमें संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित वस्तु को नाम आदि द्वारा क्षेपण किया जाता है। वृत्तिकार ने इसकी व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है कि युक्तिमार्ग से प्रयोजनवश जो वस्तु को नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि की दृष्टि से क्षेपण करें उसे निक्षेप कहते हैं।१११ निक्षेप का अन्य नाम उपक्रमानी व्याची ख्यासित या न्यसन भी किया गया है। निक्षेप को निष्पन्न भी कहा है। निष्पन्न के तीन भेद किये हैं। १२
१. ओघ-निष्पन्न, २. नाम-निष्पन्न, ३. सूत्रालापक-निष्पन्न
औघ-निस्पन्न में अङ्ग ग्रन्थों के अध्ययन आदि का सामान्य न्यास किया जाता है। नाम-निस्पन्न में आचार, शस्त्र परिज्ञा आदि विशेष नामों का उल्लेख किया जाता है। सूत्रालापक निस्पन्न में सूत्रशैली के कथन को नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि के रूप में रखा जाता है। आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
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