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________________ - २८ आवश्यकनियुक्तिः आदितीर्थे शिष्या: दुःखेन शोध्यन्ते सुष्ठु ऋजुष्वभावा यतः । तथा पश्चिमतीर्थे शिष्या: दुःखेन प्रतिपाल्यन्ते सुष्ठु वक्रस्वभावा यत: पूर्वकालशिष्याः पश्चिमकालशिष्याश्च अपि स्फुटं कल्प्यं—योग्यं, अकल्प्यं अयोग्यं च न जानन्ति यतस्तत: आदौ निधने च छेदोपस्थानमुपदिशत इति ॥३४॥ सामायिककरणक्रममाहपडिलिहियअंजलिकरो उवजुत्तो उट्ठिऊण एयमणो । अव्वाखित्तो वुत्तो करेदि सामाइयं भिक्खू ।।३५।। प्रतिलेखितांजलिकर: उपयुक्त: उत्थाय एकमनाः । अव्याक्षिप्त: उक्तः करोति सामायिकं भिक्षुः ॥३५॥ प्रतिलेखितावञ्जलिकरौ येनासौ प्रतिलेखिताञ्जलिकरः । उपयुक्तः समाहितमति:, उत्थाय-स्थित्वा, एकाग्रमना अव्याक्षिप्तः, आगमोक्तक्रमेण करोति सामायिकं भिक्षुः । अथवा प्रतिलेख्य शुद्धो भूत्वा द्रव्यक्षेत्रकालभावशुद्धिं कृत्वा, प्रकृष्टाञ्जलि'करमुकलितकरः प्रतिलेखनेन सहिताञ्जलिकरो वा सामायिकं करोतीति ॥३५॥ __आचारवृत्ति-प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव के तीर्थ में शिष्य दुःख से शुद्ध किये जाते हैं, क्योंकि वे अतिशय सरल स्वभावी होते हैं । तथा अन्तिम तीर्थंकर (महावीर) के तीर्थ में शिष्यों का दुःख से प्रतिपालन किया जाता है, क्योंकि वे अतिशय वक्रस्वभावी होते हैं । ये पूर्वकाल में शिष्य और पश्चिम काल के शिष्य अर्थात् दोनों समय के शिष्य भी स्पष्टतया योग्य अर्थात् उचित और अयोग्य अर्थात् अनुचित नहीं जानते हैं, इसलिए आदि (प्रथम) और अन्त के दोनों तीर्थंकरों ने छेदोपस्थापना संयम का उपदेश दिया है ॥३४॥ अब सामायिक करने का क्रम (विधि) कहते हैं गाथार्थ—प्रतिलेखन (मयूर-पिच्छी) सहित. अंजलि जोड़कर, उपयुक्त (पूर्णत: जागृत बुद्धि युक्त) हुआ, उठकर (खड़े होकर), एकाग्रमन होकर, मन को विक्षेप रहित करके, मुनि सामायिक करता है ॥३५॥ आचारवृत्ति-जिन्होंने पिच्छी को लेकर अंजलि जोड़ ली है, जो सावधान बुद्धि वाले हैं, वे मुनि व्याक्षिप्त अर्थात् व्याकुल चित्त न होकर, खड़े होकर एकाग्रमन होते हुए, आगम में कथित विधि से सामायिक करते हैं । अथवा पिच्छी से प्रतिलेखन के द्वारा शुद्ध होकर, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव शुद्धि को करके प्रकृष्ट रूप से अंजलि को मुकलित कमलाकार बनाकर अथवा प्रतिलेखन पिच्छिका सहित अंजलि जोड़कर सामायिक करते हैं ॥३५॥ १. क लिंकने कृत्वाञ्जलिकर: भु० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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