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आवश्यक निर्युक्तिः
समत्वभावपूर्वकं भेदेन सामायिकमाहजो समो सव्वभूदेसु तसेसु थावरेसु य ।
'तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे ।। २५ ।।
यः समः सर्वभूतेषु त्रसेषु स्थावरेषु च ।
तस्य सामायिकं नाम इति केवलिशासने ॥ २५॥
यः समः सर्वभूतेषु-त्रसेषु स्थावरेषु च समस्तेषामपीडाकरस्तस्य सामायिकमिति ॥२५॥
रागद्वेषविकाराभावभेदेन सामायिकमाह
जस्स रागो य दोसो य वियडिं ण जर्णेति दु । यस्य रागश्च दोषश्च विकृतिं न जनयतस्तु ।
यस्य रागद्वेषौ विकृतिं विकारं न जनयतस्तस्य सामायिकमिति । कषायजयेन सामायिकमाह
* जेण कोधो य माणो य माया लोभो य णिज्जिदो । येन क्रोधश्च मानश्च माया लोभश्च निर्जिताः ।
१.
२.
गाथार्थ — सभी प्राणियों में, त्रसों और स्थावरों में, जो समभावी है उसके सामायिक होता है, ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा है ||२५||
आचारवृत्ति - जो सर्व प्राणियों में, त्रसों और स्थावरों में, समभाव रखते हैं अर्थात् उनको पीड़ा नहीं देते हैं उनके सामायिक होता है ॥२५॥
अर्ध-गाथार्थ - जिस जीव के राग और द्वेष विकार को उत्पन्न नहीं करते उनके सामायिक होता है - ऐसा जिनशासन में कहा है ।
२१
अर्ध-गाथार्थ - जिन्होंने क्रोध, मान, माया और लोभ को जीत लिया है उनले सामायिक होता है - ऐसा जिनशासन में कहा है ॥२६॥
आचारवृत्ति — जिन्होंने अनन्तानुबंधी आदि चार भेदों सहित क्रोध, मान, माया, लोभ का तथा हास्य आदि नो- कषायों का दलन कर दिया है उन्हीं के सामायिक होता है ॥२६॥ आगे संज्ञा, लेश्या का अभाव रूप भेदकर सामायिक कहते हैं
*ग प्रति माणिकचन्द ग्रन्थमाला और भा० ज्ञानपीठ से प्रकाशित मूलाचार में इस गाथा से गाथा-संख्या बदली हुई है । क्रमश: इस गाथा सं० २७ एवं २८ है । किन्तु भाषा वचनिका के अनुसार संख्या में परिवर्तन किया गया है ।
'अस्याः गाथायाः उत्तरार्धं द्वात्रिंशत्तमगाथापर्यन्तं संयोज्य संयोज्य पठनीयम् । अ, ब णिज्जिदा ।
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