________________
आवश्यकनियुक्तिः
सदा आचारवित् सदा आचरितं चरः ।
आचारमाचारयन् आचार्यः तेन उच्यते ॥८॥ श्लोकोऽयम् । सदा सर्वकालं आचारं वेत्तीति, सदाचारवित् रात्रौ दिने वाचरस्य परमार्थसंवेदनं यत्नेन युक्तोऽथवा सदाचारः शोभनाचार: सम्यग्ज्ञानवांश्च सदा सर्वकालमाचरितं चर आचरितं गणधरादिरभिप्रेतं चेष्टितं चरतीति वा चरितं चरोऽथवा चरणीयं श्रामण्ययोग्यं दीक्षाकालं च शिक्षाकालं च चरितवानिति कृतकृत्य इत्यर्थः । आचारमन्यान् साधूनाचारयन् हि यस्मात् प्रभासते तस्मादाचार्य इत्युच्यते ॥८॥ तथा
जम्हा पंचविहाचारं आचरंतो पभासदि । आयरियाणि देसंतो आयरिओ तेण वुच्चदे ।।९।।*
यस्मात् पंचविधाचारं आचरन् प्रभासते । । आचरितानि दर्शयन् आचार्य: तेन उच्यते ॥९॥
गाथार्थ-सदा आचार वेत्ता हैं, सदा आचार का आचरण करते हैं और (जो अन्य साधुओं आदि को) आचारों का आचरण कराते हैं इसलिए आचार्य कहलाते हैं ॥८॥
आचारवृत्ति—यह श्लोक (गाथा) है । जो हमेशा आचारों को जानते हैं वे आचार-विद् हैं अर्थात् रात-दिन होने वाले आचरणों को जो परमार्थ से जानते हैं, यत्न-पूर्वक उसमें लगे हुए हैं । अथवा जो सदाचार अर्थात् शोभन आचार का पालन करते हैं, सम्यग्ज्ञानवान् हैं, वे आचारविद् कहलाते हैं । जो सर्वकाल गणधरदेव आदिकों के द्वारा अभिप्रेत अर्थात् आचरित आचरण को धारण करते हैं अथवा जो श्रमणपने के योग्य दीक्षा-काल और शिक्षाकाल का आचरण करते हुए कृतकृत्य हो रहे हैं, तथा जो अन्य साधुओं को भी पाँच आचारों का आचरण कराते रहते हैं इसी हेतु से वे 'आचार्य' इस नाम से कहे जाते हैं ॥८॥ और भी
__ गाथार्थ-जिस कारण वे पाँच प्रकार के आचारों का स्वयं आचरण करते . हुए शोभित होते हैं और अपने आचरित आचारों को दिखलाते हैं इसी कारण से
वे आचार्य कहलाते हैं ॥९॥
* फलटन की प्रति में यह गाथा अधिक है
आइरिय णमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी ।
सो सव्वदुक्ख मोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥ अर्थात् जो भव्यजीव भाव से एकाग्रचित्त होकर आचार्यों को नमस्कार करता है वह शीघ्र ही सर्वदुःखों से मुक्त हो जाता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org