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इत्थंभूतानामर्हतां नमस्कारं यः करोति भावेन प्रयत्नमतिः स सर्वदुःखमोक्षं
प्राप्नोत्यचिरेण कालेनेति ॥५॥
आवश्यक नियुक्तिः
सिद्धानां निरुक्तिमाह
दीहकालमयं जंतू उसिदो अट्ठकम्महिं । सिदे धत्ते णिधत्ते य सिद्धत्तमुवगच्छइ ।। ६ ।।
श्लोकोऽयं । दीर्घकालमनादिसंसारं । अयं जन्तुर्जीवः । उषितः स्थितः अष्टसु कर्मसु ज्ञानावरणादिभिः कर्मभिः परिवेष्टितोयं जीवः परिणतः स्थितः । सि कर्मबन्धे निवृत्ते' । निर्धत्ते परप्रकृतिसंक्रमोदयोदीरणोत्कर्षापकर्षणरहिते ध्वस्ते प्रणाशमुपगते सिद्धत्वमुपगच्छति । निर्धत्ते बन्धे ध्वस्ते सत्ययं जन्तुर्यद्यपि दीर्घकालं कर्मसु व्यवस्थितस्तथापि सिद्धो भवति सम्यग्ज्ञानाद्यनुष्ठानेनेति ॥६॥
दीर्घकालमयं जंतुः उषितः अष्टकर्मसु । सिते ध्वस्ते निधत्ते च सिद्धत्वमुपगच्छति ॥६॥
तथोपायमाह—
आवेसणी सरीरे इंदियभंडो मणो व आगरिओ । धमिदव्व जीवलोहो वावीसपरीसहग्गीहिं ।।७।।
आचारवृत्ति — इस प्रकार जो प्रयत्नमति बुद्धिमान् अर्हन्तों को भाव से नमस्कार करता है, वह सर्वदुःखों से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है ॥५॥
अब सिद्धों की निरुक्ति कहते हैं
१.
गाथार्थ - यह जीव दीर्घकाल से आठ कर्मों में स्थित है । कर्मों के ध्वस्त एवं नष्ट हो जाने पर सिद्धत्व को प्राप्त कर लेता है ॥६॥
I
आचारवृत्ति — यह श्लोक (गाथा) है । अनादिकाल से यह जीव ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से घिरा हुआ रहता है, कर्मों से परिणित हो रहा है । निधत्ति रूप जो कर्म हैं अर्थात् जिनका पर प्रकृति रूप संक्रमण नहीं होता है, जिनका उदय, उदीरणा, उत्कर्षण और अपकर्षण नहीं हो रहा है, ऐसे कर्म बन्धन के ध्वस्त हो जाने पर यह जीव सिद्धपने को प्राप्त कर लेता हैं । तात्पर्य यह है कि यद्यपि यह जीव अनादिकाल से कर्मों से व्यवस्थित है फिर भी सम्यग्ज्ञान आदि अनुष्ठान के द्वारा कर्मबन्धनों को ध्वस्त करके सिद्ध हो जाता है ||६||
आगे इसका उपाय बतलाते हैं
गाथार्थ - शरीर चूल्हा है, इन्द्रियाँ वर्तन हैं और मन लोहकार है । बाईस परीषहों के द्वारा जीवरूपी लोहे को तपाना चाहिए ||७||
'निवृत्ते' नास्ति क प्रतौ ।
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