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किया है । भाषावचनिका लेखन की प्रतिज्ञा के बाद चूँकि पं. नन्दलाल जी स्वयं एक गृहस्थ-श्रावक विद्वान् हैं । अत: एक गृहस्थ द्वारा मुनियों के आचार सम्बन्धी ग्रन्थ पर लेखनी चलाने के औचित्य की सिद्धि की है । इसके बाद उन्होंने श्रमणाचार विषयक ग्रन्थ और उनके कर्ता की सूचनायें दी हैं । जैसे - मूलाचार वट्टकेर स्वामी कृत, इसकी वसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत आचारवृत्ति टीका, चामुण्डराय कृत चारित्रसार, आचार्य सकलकीर्तिकृत मूलाचार प्रदीपक ।
इसके बाद मूलाचार के सम्पूर्ण बारह अधिकारों में क्रमशः प्रत्येक की विस्तार से पीठिका (विषयवस्तु) और गाथा संख्या दी है । इसके बाद प्रत्येक अधिकार के गाथा क्रम से आचार्य वसुनन्दि की संस्कृत टीका आचारवृत्ति के आधार पर वचनिकाकार ने जयपुर क्षेत्र की तत्कालीन लोकप्रिय बोली ढूँढारी भाषा में बहुत ही सरल और सहज भाषा में अनुवाद किया है। पहले मूल प्राकृत गाथा तथा उसका ढूँढारी में अनुवाद, वसुनन्दि की तदनन्तर संस्कृत टीका के आधार पर इसका अनुवाद ढूँढारी में है ।
संस्कृत टीकाकार आ० वसुनन्दि ने किसी-किसी अधिकार के शुभारम्भ में स्वनिर्मित नीतिपूर्ण श्लोक लिखा है । विशेषता यह है कि संस्कृत आचारवृत्ति का ढूँढारी में अनुवाद एवं कहीं-कहीं विशेषार्थ किया गया है किन्तु संस्कृत मूल आचारवृत्ति इसमें नहीं है । वचनिका - कार ने भी उसका अनुवाद पद्य में ही किया है किन्तु संस्कृत श्लोक नहीं लिखा । यथा - सप्तम षड़ावश्यक अधिकार में टीकाकार का पद्य इस प्रकार है
प्रायेण जायते पुंसां वीतरागस्य दर्शनम् । तद्दर्शनविरक्तानां भयेज्जन्मापि निष्फलम् ।। वचनिकाकार ने इसका पद्यानुवाद इस प्रकार किया है
वीतराग जिनराज का दर्शन कठिन नवीन । तिनका निष्फल जन्म है जे जिनदर्शन हीन ।।
इसी षडावश्यक अधिकार, स्वरूप आवश्यक नियुक्ति की प्रथम मंगलाचरण रूप प्राकृत गाथा इस प्रकार है
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काऊण णमोक्कारं अरहंताणं तहेव सिद्धाणं । आइरियउवज्झाए लोगम्मि य सव्वसाहूणं ॥ १ ॥
इसका वचनिकाकार द्वारा प्रस्तुत गद्यानुवाद इस प्रकार है - " जो लोक विषै अर्हन्ता है, तथा सिद्ध है तथा आचार्य, उपाध्याय हैं तथा सर्वसाधु हैं, तिनिकौं नमस्कारकरि आवश्यक निर्युक्ति है, ताहि कहूँगा ॥१॥
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