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________________ जो वश में नहीं है वह अवश कहलाता है और अवश के कर्म, को आवश्यक कहते हैं । युक्ति और उपाय एकार्थक हैं । अतः सम्पूर्ण उपाय निर्युक्ति कहलाता है - इस प्रकार यहाँ अर्थ जानना चाहिए । आवश्यक के छह भेदों का वर्णन इस अधिकार में आचार्यवट्टकेर ने किया है । विशेषता यह है कि छहों आवश्यकों के साथ निर्युक्ति शब्द जुड़ा हुआ है । जैसे सामायिक निर्युक्ति, चतुर्विंशति निर्युक्ति, वन्दना निर्युक्ति, प्रतिक्रमण निर्युक्ति, प्रत्याख्यान निर्युक्ति और कायोत्सर्ग नियुक्ति । ग्रन्थकार आचार्य श्री वट्टकेरस्वामि ने उक्त आवश्यक निर्युक्तियों के विस्तृत विवेचन में नाम - स्थापनाद्रव्य-क्षेत्र - त्र-काल और भावरूप निक्षेप विधि का प्रयोग किया है । वे कहते हैं कि निक्षेप विधि से रहित व्याख्यान वक्ता और श्रोता दोनों को उत्पथ में ले जाता है। अतः यहाँ निक्षेपपूर्वक आवश्यकों का वर्णन किया है। यहाँ शुभाशुभ नाम-स्थापना - द्रव्य-क्षेत्र और काल में राग-द्वेषादि भावों के अभाव और समता भाव के सद्भाव को सामायिक कहा है । अशुभ परिणामों के त्याग एवं सर्व जीवों पर मैत्री भाव को भाव सामायिक जानना । इस प्रकार आचार्यदेव ने सामायिक निर्युक्ति का विस्तृत विवेचन किया है । आगे वे कहते हैं - शुभाशुभ आकृतियों, मूर्तियों में, मनोल्हादकारी तदाकार व अतदाकार स्थापना में रागद्वेष नहीं करना स्थापना सामायिक है । शुभाशुभ द्रव्य, क्षेत्र, और काल में भी आर्त - रौद्रध्यान रूप राग-द्वेष नहीं करना क्रमशः द्रव्य-क्षेत्र - काल सामायिक है । - कषाय जय, इन्द्रियजय अर्थात् मनोज्ञ-अमनोज्ञ इन्द्रिय विषयों में रागद्वेष का अभाव, आर्त - रौद्र ध्यानरूप परिणामों का न होना- जिनशासन में भावसामायिक कही गई है । समताभाव ही यथार्थ सामायिक है । इसी प्रकार स्तव-वन्दना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग आवश्यक निर्युक्ति का विवेचन भी नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्र - काल और भावरूप अनियोगद्वारों से किया गया है । इसी अधिकार के अन्तर्गत साधुओं के अवश्य करने योग्य 28 कृतिकर्म का वर्णन भी इस प्रकार है - तीनों समय सम्बन्धी सामायिक के चैत्यपंचगुरुभक्ति दो-दो (6), दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण के 4-4 (8), चारों (पूर्वाहअपराण्ह-पूर्वरात्रिक-अपररात्रिक) स्वाध्यायों में 3-3 (4x3 12), रात्रियोग Jain Education International For Personal & Private Use Only = www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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