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इस दृष्टि से मूलाचार को आचारांग के आधार पर ही निर्मित माना गया है। मूलाचार के टीकाकार आचार्य वसनन्दि और सकलकीर्ति के कथनों से इस बात का समर्थन भी होता है । इसीलिए आचार्य वीरसेन ने षट्खण्डागम की अपनी धवला टीका में तथा आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में मूलाचार का आचारांग के नाम से उल्लेख करते हुए इन्होंने अपने-अपने ग्रन्थों में मूलाचार की गाथाओं को उद्धृत किया है ।
आचार्य वट्टकेर ने स्वयं इसी आवश्यक नियुक्ति (षडावश्यकाधिकार) के अन्त में एक गाथा के माध्यम से कहा भी है
णिज्जुत्ती णिज्जुत्ती एसा कहिदा मए समासेण ।
अह वित्थारपसंगोऽणियोगदो होदि णादव्यो ।। १८८।। अर्थात् मैंने (आचार्य वट्टकेर ने) यह नियुक्ति संक्षेप में कही है । इसे अधिक विस्तार से अनियोग-(आचारांग संस्कृत टीकाकार आ० वसुनन्दि के अनुसार) आगम से जानना चाहिए । मूलाचार : मूलसंघ का एक प्रतिनिधि आगमशास्त्र
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट है कि प्रथम मूल-अंग-आगम आचारांग के आधार पर मूलाचार की रचना हुई, इसीलिए इसका नाम भी 'मूलाचार' प्रसिद्ध हुआ और तदनुसार उस श्रमणसंघ के आचार का प्रतिपादक होने से उस संघ का नाम 'मूलसंघ' प्रचलित हुआ जान पड़ता है, जो कि दिगम्बर परम्परा का सर्वाधिक प्राचीन और प्रमुख संघ है, जिसकी परम्परा आज भी यहाँ प्रमुखता से प्रचलित है और प्राय: सभी दिगम्बर जैनसंघ अपने को इसी मूलसंघ की परम्परा का अनुयायी मानते हैं । इसीलिए मूलसंघ का प्रतिनिधि आदर्श ग्रन्थ है यह मूलाचार । _ मूलाचार के अध्ययन से यह भी स्पष्ट होता है कि पाँचवें श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के समय जो दुर्भिक्ष पड़ा, उसके प्रभाव से श्रमणाचार में जो शिथिलता आई थी, उसे देखकर श्रमणों को अपने आचार-विचार एवं व्यवहार आदि की विशुद्धता का समग्र एवं व्यवस्थित रूप में श्रमण-धर्म के सम्पूर्ण आचार-विचार का निरूपण इसमें हमें मिलता है, वैसा अन्य श्रमणाचार-परक प्राचीन ग्रन्थों में देखने को नहीं मिलता ।
इसी कारण इस ग्रन्थ का नाम मूलाचार पड़ा और तदनुसार तीर्थंकर महावीर का मूल परम्परानुसार-आचार के प्रतिपादक शास्त्र (मूलाचार) के अनुसार ही श्रमणसंघ का प्रवर्तन कराने से उनके संघ का नाम भी "मूलसंघ" प्रचलित
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