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________________ (२) दुक्कर-तव-चरणपरो परिसह-जय-दोस वज्जियाहारे। . चित्तमसंगं सददं, विरदं विसद णाणपसारे रत्तो ।।५।। अर्थ-दुष्कर तप और आचार के पालन में तत्पर, दोषवर्जित आहार ग्रहण करने वाले, सतत् समस्त परिग्रह रहित, विषयों से विरक्त चित्त वाले आचार्य वट्टकेर ज्ञान के प्रसार में निरन्तर अच्छी तरह संलग्न रहते थे । कम्मजोगे जुवा णिच्चं सारल्ले य सदा सिस। . णाणजोगे सदा बुड्डो वट्टकेरो विराजदि ।।६।। अर्थ-आचार्य वट्टकेर कर्मयोग में युवा सदृश, सरलता (ऋजुता) में सदा शिशु (बालक) के सदृश तथा ज्ञानयोग में वृद्ध के समान-इस तरह इन तीनों लौकिक योगों में वे सुशोभित हो रहे थे। .. गामाणुगाम-विहरन सुचरिदं अखण्ड संजम रयणतयस्स । . ___ पाढेज्जएदितं आवासय-णिज्जुत्ति रक्खणत्थं णिव्वाणसुहं ।।७।। अर्थ-अखण्ड संयम तथा रत्नत्रय का सम्यक् परिपालन करने वाले आचार्य वट्टकेर ने एक ग्राम से दूसरे ग्रामों में अनुक्रम से विहार करते हुए निर्वाण-सुख के संरक्षण हेतु आवश्यकनियुक्ति नामक आचारशास्त्र का अध्ययन सभी को कराया । सच्चं तवं च रयणत्तय धम्मजुत्तं, आयारसार सुदधार अगाध बोधं । खण्डेदि सो हि सिहिलाचार-विणट्ठपावं, तं वट्टकेरमुणिणाध-पहुं णमामि ।।८।। अर्थ-तप तथा सत्य से युक्त रत्नत्रय धर्म रूप आचार के सार (मूलाचार) का पालन करने वाले अगाध श्रुतज्ञान की तेजधार से युक्त, पापों का विनाश करके शिथिलाचार को खण्डित (दूर) करने वाले ऐसे आचार्य वट्टकेर को मैं सदा नमन करता हूँ। सामण्णजुत्त जिणसासण अप्पझाणी, सिस्साण णाणचरिदे अणुरत्त सामी। मण्णंति जे सयल जीव-सहावभावे, तं वट्टकेर मुणिणाध-पहुं णमामि ।।९।। अर्थ-जिन शासन में श्रामण्य गण से यक्त आत्मध्यानी, शिष्यों को ज्ञानदान में अनुरक्त, समस्त जीवों को समभाव रूप मानने वाले उन आचार्य वट्टकेर को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ। प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी (सम्पादक द्वारा लिखित) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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