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जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन
षड्-आवश्यकों की प्रायोगिक विधि का बहत ही अच्छा विवेचन किया है । भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित मूलाचार (प्रथम भाग) के अन्त में इसकी अनुवादिका उत्कृष्ट विदुषी पूज्यनीया गणिनि आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने इसे जिस प्रकार प्रस्तुत किया है, उसे उपयोगिता की दृष्टि से यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है१. अहोरात्रिक क्रियायें
अर्धरात्रि के दो घड़ी अनन्तर से अपररात्रिक स्वाध्याय का काल हो जाता है । उस समय पहले 'अपररात्रिक' स्वाध्याय करके, पुनः सूर्योदय के दो घड़ी शेष रह जाने पर स्वाध्याय समाप्त कर 'रात्रिक प्रतिक्रमण करके रात्रियोग समाप्त कर देवे । फिर सूर्योदय के समय से दो घड़ी तक ‘देववन्दना' अर्थात् सामायिक करके गुरुवन्दना करे । पुन: 'पौर्वाह्निक' स्वाध्याय प्रारम्भ करके मध्याह्न के दो घड़ी शेष रहने पर स्वाध्याय समाप्त कर 'देववन्दना' करे ।
मध्याह्न समय देववन्दना समाप्त कर ‘गुरुवन्दना करके ‘आहार हेतु' जावे । यदि उपवास हो तो उस समय जाप्य या आराधना का चिन्तवन करे । गोचरी (आहार) से आकर गोचार प्रतिक्रमण करके व प्रत्याख्यान ग्रहण करके पुन: 'अपराह्निक' स्वाध्याय प्रारम्भ कर सूर्यास्त के दो घड़ी पहले समाप्त कर 'दैवसिक' प्रतिक्रमण करे ।
पुन: गुरुवन्दना करके रात्रि-योग ग्रहण करे तथा सूर्यास्त के अनन्तर 'देववन्दना' सामायिक करे । रात्रि के दो घड़ी व्यतीत हो जाने पर पूर्वरात्रिक' स्वाध्याय प्रारम्भ करके अर्धरात्रि के दो घड़ी पहले ही स्वाध्याय समाप्त करके शयन करे । यह अहोरात्र सम्बन्धी क्रियाएँ हुईं . २. नैमित्तिक क्रियायें
इसी तरह नैमित्तिक क्रियाओं में अष्टमी, चतुर्दशी की क्रिया, चतुर्दशी अमावस्या या पूर्णिमा को पाक्षिक प्रतिक्रमण, श्रुतपंचमी को श्रुतपंचमी क्रिया, वीर निर्वाण समय वीर-निर्वाणक्रिया इत्यादि क्रियाएँ करें ।
किन क्रियाओं में किन भक्तियों का प्रयोग ?
स्वाध्याय के प्रारम्भ में लघुश्रुतभक्ति, लघु आचार्यभक्ति तथा समाप्ति के समय लघु श्रुतभक्ति होती है । देववन्दना में चैत्यभक्ति पंचगुरुभक्ति होती है । आचार्यवन्दना में लघु सिद्धभक्ति आचार्यभक्ति । यदि आचार्य सिद्धान्तविद् हैं तो इनके मध्य लघु श्रुतभक्ति होती है । दैवसिक, रात्रिक प्रतिक्रमण में सिद्ध, प्रतिक्रमण, वीर और चतुर्विंशति तीर्थंकर-ऐसी चार भक्ति हैं तथा रात्रियोग ग्रहण तथा मोचन में योगभक्ति होती है।
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