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आवश्यकनियुक्तिः
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प्रत्याख्यान के तीन अंग-प्रत्याख्यान के प्रत्याख्यायक, प्रत्याख्यान और प्रत्याख्यातव्य-ये तीन अंग हैं । १. प्रत्याख्यायक से तात्पर्य संयमयुक्त जीव है । अर्थात् जो श्रमण गुरु के उपदेश, अर्हद् की आज्ञा तथा सम्यक् विवेकपूर्वक दोषों के स्वरूप को जानकर उनका साकार (सविकल्प) और निराकार (निर्विकल्प) रूप से प्रतिक्रमण (पूर्ण त्याग) करता है तथा उसका ग्रहणकाल, मध्यकाल और समाप्ति काल में दृढ़तापूर्वक पालन करता है, उस धैर्यवान् आत्मा को प्रत्याख्यायक कहते हैं । २. प्रत्याख्यान से तात्पर्य त्याग के परिणाम से है । अर्थात् जिन परिणामों से तप के लिए सावध या निरवद्य द्रव्य का त्याग किया जाता है । ऐसा अन्न, वस्त्र आदि बाह्य द्रव्यरूप वस्तुओं का त्याग तथा
अज्ञान, असंयम आदि के त्याग द्वारा भावपूर्वक और भावत्याग के उद्देश्य से होना चाहिए । ३. प्रत्याख्यातव्य से तात्पर्य त्याग योग्य परिग्रह अर्थात् सचित्त,
अचित्त और मिश्र एवं अभक्ष्य भोज्य आदिरूप बाह्य-उपधि (परिग्रह) तथा क्रोध, मान, माया और लोभ रूप अन्तरंग-उपधि का त्याग है ।
इस प्रकार प्रत्याख्यान के ये तीन अंग हैं तथा भूत, भविष्य और वर्तमान-इन तीन कालों की दृष्टि से इनके तीन-तीन भेद हैं । प्रत्याख्यान के भेद
अपराजितसूरि ने योग के सम्बन्ध से मन, वचन और काय की दृष्टि से प्रत्याख्यान के तीन भेद किये हैं । १. मैं अतिचारों को भविष्यकाल में नहीं करूँगा-ऐसा मन से विचार करना मनःप्रत्याख्यान है । २. भविष्यकाल में (आगे) मैं अतिचार नहीं करूँगा-ऐसा वचनों द्वारा कहना वचन प्रत्याख्यान है । तथा ३. शरीर के द्वारा भविष्यकाल में अतिचार नहीं करना कायप्रत्याख्यान है। निक्षेप दृष्टि से प्रत्याख्यान के भेद
___ अन्य आवश्यकों के समान निक्षेप दृष्टि से प्रत्याख्यान के भी नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-ये छह भेद हैं ।
१.
५. ६. ७.
मूलाचार ७/१३६ ।
२. मूलाचार ७/१३७ ।
४. मूलाचार ७/१३८ । वही ७/१३६ । भगवती आराधना विजयोदया टीका ५०९, पृ० ७२८ । वही १/२७ ।
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