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आवश्यक नियुक्तिः
कालिक आधार पर प्रतिक्रमण के सात भेद' -
१. दैवसिक : सम्पूर्ण दिन में हुए अतिचारों की आलोचना प्रत्येक सन्ध्या करना । २. रात्रिक : सम्पूर्ण रात्रि में हुए अतिचारों की प्रतिदिन के प्रातः आलोचना करना । ३. ईर्यापथ : गुरुवंदन, आहार, शौच आदि जाते समय षट्काय के जीवों के प्रति हुए अतिचारों से निवृत्ति । ४. पाक्षिक : सम्पूर्ण पक्ष में लगे दोषों की निवृत्ति के लिए अमावस्या एवं पूर्णिमा को उनकी आलोचना करना । ५. चातुर्मासिक : चार माह में हुए अतिचारों की निवृत्ति हेतु कार्तिक, फाल्गुन एवं आषाढ़ माह की पूर्णिमा को विचारपूर्वक आलोचना करना । सांवत्सरिक : वर्ष भर के अतिचारों की निवृत्ति हेतु प्रत्येक वर्ष आषाढ़ माह के अन्त में चतुर्दशी या पूर्णिमा के दिन चिन्तनपूर्वक आलोचना करना । ७. औत्तमार्थ : यावज्जीवन चार प्रकार के आहारों से निवृत्ति होना औत्तमार्थ प्रतिक्रमण है । इसके अन्तर्गत जीवनपर्यन्त सभी प्रकार के अतिचारों का भी त्याग हो जाता है ।
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जिज्ञासा का समाधान - प्रतिक्रमण के उपर्युक्त भेदों के आधार पर एक जिज्ञासा होती है कि जब दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण करने से प्रतिदिन के अतिचारों की निवृत्ति हो जाती है तब पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक आदि प्रतिक्रमण करने की क्या आवश्यकता है ? इसके समाधान में कहा है कि प्रतिदिन प्रतिक्रमण करने के बाद भी कुछ अतिचारों का परिमार्जन शेष रह जाता है, उसके लिए पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक – इन प्रतिक्रमणों का विधान किया है । इनमें भी जो अतिचार छूट गये उनके त्याग के लिए औत्तमार्थ प्रतिक्रमण है ।
अन्य दृष्टि से भेद - उपर्युक्त सात भेदों के अतिरिक्त भी मूलाचार के संक्षेप-प्रत्याख्यानसंस्तरस्तव नामक तृतीय अधिकार में आराधना ( मरणसमाधि) काल के तीन प्रतिक्रमणों का भी उल्लेख किया है ।
१. सर्वातिचार - दीक्षा ग्रहण काल से लेकर सम्पूर्ण तपश्चरण काल में हुए समस्त अतिचारों का प्रतिक्रमण (त्याग) ।
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२. त्रिविध आहार का प्रतिक्रमण - जल के अतिरिक्त अशन, खाद्य और स्वाद्य — इन तीन प्रकार के आहार का त्याग करना ।
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मूलाचार ७/११६
पढमं सव्वदिचारं बिदियं तिविहं हवे पडिक्कमणं ।
पाणस परिच्चयणं जावज्जीवाय उत्तमठ्ठे च ॥ मूलाचार ३ / १२०
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