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आवश्यकनियुक्तिः
चेष्टापूर्वक (रेंगकर) वन्दना करना । ८. मत्स्योदवर्त-मछली की तरह कमर को ऊँची करके वन्दना करना । ९. मनोदुष्ट-द्वेष अथवा संक्लेश मनयुक्त वन्दना करना । १०. बेदिकाबद्ध-दोनों हाथ से दोनों घुटनों को बाँधकर वक्षस्थल के मर्दनपूर्वक वन्दना करना । ११. भय-मरण आदि सात भयों से डरकर वन्दना करना । १२. विभ्य-परमार्थ को जाने बिना गुरु आदि से भयभीत होकर वन्दना करना । १३. ऋद्धिगौरव-वन्दना करने से कोई चातुर्वर्ण्य श्रमण संघ का भक्त हो जायेगा इस अभिप्राय से वन्दना करना । १४. गौरव-आसनादि के द्वारा अपना माहात्म्य-गौरव प्रगट करके अथवा रसयुक्त भोजन आदि की स्पृहा रखकर वन्दना करना । १५. स्तेनितआचार्यादि से छिपकर-इस ढंग से वन्दना करना जिससे उन्हें मालूम ही न पड़े । १६. प्रतिनीत-देव, गुरु आदि के प्रतिकूल होकर वन्दना करना ।
१७. प्रदुष्ट-दूसरे के साथ द्वेष, वैर, कलह आदि करके उससे क्षमा माँगे या किये बिना वन्दना आदि क्रिया करना । १८. तर्जित-दूसरों को भय दिखाकर अथवा आचार्यादि के द्वारा तर्जनी अंगुलि आदि से तर्जित अर्थात् अनुशासित किये जाने पर कि यदि नियमादि का पालन नहीं करोगे तो आपको (संघ से) निकाल दूंगा-ऐसा तर्जित किये जाने पर ही वन्दना करना तर्जित दोष है । १९. शब्द-मौन छोड़कर शब्द बोलते हुए वन्दना करना शब्द दोष है अथवा "सद्द' के स्थान पर 'सट्ठ'-यह पाठ रहने पर शठतापूर्वक या माया प्रपंच से वन्दना करना शाठ्य दोष है । २०. हीलित-आचार्य या अन्य साधुओं का पराभव करके वन्दना करना । २१. त्रिवलित-ललाट की तीन रेखाएँ चढ़ाकर वन्दना करते समय कमर, हृदय और कण्ठ-इन तीनों में भंगिमा पड़ जाना । २२. कुंचित-घुटनों के बीच में मस्तक झुकाकर वन्दना करना या दोनों हाथों से सिर का स्पर्शकर संकोच रूप होकर वन्दना करना ।
२३. दृष्ट-आचार्य के सामने ठीक से वन्दना करना, परोक्ष में स्वच्छन्दतापूर्वक अथवा इच्छानुकूल दशों दिशाओं में अवलोकन करते हुए वन्दना करना । २४. अदृष्ट-आचार्य आदि न देख सकें अतः ऐसे स्थान से वन्दना करना । अथवा भूमि, शरीर आदि का प्रतिलेखन किये बिना मन की चंचलता से युक्त होकर अथवा पीछे जाकर वन्दना करना । २५. संघ-कर-मोचन-संघ के रुष्ट होने के भय से तथा संघ को प्रसन्न करने के उद्देश्य से वन्दना को 'कर' (टैक्स) भाग समझकर पूर्ति करना । २६. आलब्ध-उपकरणादि प्राप्त करके वन्दना करना । २७. अनालब्ध-उपकरणादि प्राप्ति की आशा से वन्दना
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