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आवश्यकनियुक्तिः
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५. काल-गर्भ, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और मोक्ष—इन पाँच समयों के कल्याणकों की स्तुति करना कालस्तव है ।
६. भाव-तीर्थंकरों के अनन्तज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख, क्षायिकसम्यक्त्व, अव्याबाध और विरागता आदि गुणों का वर्णन एवं स्तवन करना भाव
स्तव है।
स्तव की विधि-शरीर, भूमि और चित्त की शुद्धिपूर्वक दोनों पैरों में चार अंगुल के अन्तर से समपाद खड़े होकर अंजुली जोड़कर सौम्यभाव से स्तवन करना चाहिए ।' तथा यह चिन्तन करना चाहिए कि अर्हत्-परमेष्ठी जगत् को प्रकाशित करने वाले, उत्तम-क्षमादि धर्मतीर्थ के कर्ता होने से तीर्थंकर, जिनवर, कीर्तनीय और केवली जैसे विशेषणों से विशिष्ट उत्तमबोधि देने वाले हैं । ३. वंदना आवश्यक.
स्वरूप-वन्दना नामक तृतीय आवश्यक मन, वचन और काय की वह प्रशस्त वृत्ति है जिससे साधक तीर्थंकरादि के प्रति तथा शिक्षा, दीक्षा एवं तप आदि में ज्येष्ठ आचार्यों एवं गुरुओं के प्रति श्रद्धा और बहुमान प्रगट करता है । मूलाचार में कहा है-अरहंत, सिद्ध की प्रतिमा, तप, श्रुत तथा गुणों में ज्येष्ठ शिक्षा तथा दीक्षा-गुरुओं को मन, वचन और काय की शुद्धि से कृतिकर्म, सिद्ध-भक्ति, श्रुत भक्ति और गुरु भक्ति पूर्वक कायोत्सर्ग आदि से विनय करना वन्दना (वंदण) आवश्यक है । जयधवला के अनुसार एक तीर्थंकर को नमस्कार करना वन्दना है' धवला में भी कहा है ऋषभादि तीर्थंकर, केवली, आचार्य तथा चैत्यालय-इनके गुण-समूहों के भेदपूर्वक शब्द-कलाप रूप गुणानुवादयुक्त नमस्कार वंदना है ।
, उद्देश्य-उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है वन्दना से जीव नीचगोत्र का क्षय तथा उच्च गोत्र का बन्ध करता है । वह अप्रतिहत सौभाग्य को प्राप्त करता है ।
१. मूलाचार ७/७६ ।
लोगुज्जोययरे धम्मतित्थयरे जिणवरे य अरहंते । कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोहिं मम दिसंतु ॥ वही ७/४२ .
अरहंतसिद्धपडिमातवसुदगुणगुरुगुरुणरादीणं ।
किदियम्मेणिदरेण य तियरणसंकोचणं पणमो ॥ मूलाचार १/२५ ४. एयरस तित्थयरस्स णमंसणं वंदणा णाम
-कसाय पाहुड जयधवला ८६, १/१-१/८६, पृ० १११. धवला ८/३/४१/८४/३ । ।
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