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________________ ११६ आवश्यक नियुक्तिः टवीविंध्यारण्यादिकभयानकप्रदेशः एतेषूपस्थितेष्वातंकोपसर्गदुर्भिक्षवृत्तिकान्तारेषु यत्प्रतिपालितं रक्षितं न भग्नं न मनागपि विपरिणामरूपं जातं तदेतत्प्रत्याख्यान मनुपालनविशुद्धं नाम ॥ १४१ ॥ परिणामविशुद्धप्रत्याख्यानस्य स्वरूपमाह - _____ रागेण व दोसेण व मणपरिणामे ण सिदं जं तु । तं पुण पच्चक्खाणं भावविसुद्धं तु णादव्वं ।। १४२।। रागेण वा द्वेषेण वा मन: परिणामेण न दूषितं यत्तु । तत् पुनः प्रत्याख्यानं भावविशुद्धं तु ज्ञातव्यम् ॥१४२॥ रागपरिणामेन द्वेषपरिणामेन च न दूषितं न प्रतिहतं विपरिणामेन यत्प्रत्याख्यानं तत्पुनः प्रत्याख्यानं भावविशुद्धं तु ज्ञातव्यमिति । सम्यग्दर्शनादियुक्तस्य नि:कांक्षस्य वीतरागस्य समभावयुक्तस्याहिंसादिव्रतसहितस्य शुद्धभावस्य प्रत्याख्यानं परिणामशुद्धं भवेदिति ॥१४२॥ उपद्रव के भय से या धान्य की उत्पत्ति के अभाव से भिक्षा का लाभ न होना दुर्भिक्ष वृत्ति है । महावन, विन्ध्याचल, अरण्य आदि भयानक प्रदेशों में पहुँच जाना अर्थात् आतंक के आ जाने पर, उपसर्ग के आ जाने पर, श्रम से थकान हो जाने पर, भिक्षा न मिलने पर या महान् भयानक वन (कान्तार) आदि में पहुँच जाने पर जो प्रत्याख्यान ग्रहण किया हुआ है उसकी रक्षा करना, उससे तिलमात्र भी विचलित नहीं होना, यह अनुपालन विशुद्ध प्रत्याख्यान है || १४१ || परिणाम विशुद्ध प्रत्याख्यान का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ - राग से अथवा द्वेष रूप मन के परिणामों से जो दूषित नहीं होता है वह भाव विशुद्ध प्रत्याख्यान है, ऐसा जानना ॥१४२॥ आचारवृत्ति - राग परिणाम से या द्वेष परिणाम से जो प्रत्याख्यान दूषित नहीं होता है, अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि से युक्त, कांक्षा रहित, वीतराग, समभावयुक्त और अहिंसादिव्रतों से सहित शुद्ध भाव वाले मुनि का प्रत्याख्यान परिणाम शुद्ध प्रत्याख्यान कहलाता है || १४२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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