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________________ विजानीहीति ॥ १३७॥ एवमेतान्प्रत्याख्यानकरणविकल्पान्विभक्तियुक्तान्तथानुगतान् पुनरपि प्रत्याख्यानकरणविधिमाह— विणण तहणु' भासा हवदि य अणुपालणाय परिणामे । एदं पच्चक्खाणं चदुव्विधं होदि णादव्वं ।। १३८ । । विनयेन तथानुभाषया भवति च अनुपालनेन परिणामेन । एतत् प्रत्याख्यानं चतुर्विधं भवति ज्ञातव्यं ॥१३८॥ विनयेन शुद्धं तथाऽनुभाषयाऽनुपालनेन परिणामेन च यच्छुद्धं भवति तदेतत्प्रत्याख्यानं चतुर्विधं भवति ज्ञातव्यमिति यस्मिन् प्रत्याख्याने विनयेन सार्द्धमनुभाषाप्रतिपालनेन सह परिणामशुद्धिस्तत्प्रत्याख्यानं चतुर्विधं भवति ज्ञातव्यमिति ॥१३८॥ आवश्यक नियुक्तिः विनयप्रत्याख्यानं तावदाह किदियम्मं वचारिय-विणओ तह णाणदंसणचरिते । पञ्चविधविणयजुत्तं विणयसुद्धं हवदि तं तु ।। १३९ ।। १. — १०. हेतु सहित उपवास सहेतुक हैं । यथा उपसर्ग आदि के निमित्त से उपवास आदि करना सहेतुक नाम का प्रत्याख्यान है । विभक्ति से युक्तं अन्वर्थ, नाम से सहित तथा परमार्थरूप प्रत्याख्यान करने के ये दश भेद जिनमत में कहे गए हैं- ऐसा जानो ॥ १३७॥ ग. भक्तियुक्तान् अर्थानुगतान् । ११३ परमार्थरूपाञ्जिनमते पुनरपि प्रत्याख्यान करने की विधि बतलाते हैं - गाथार्थ – विनय, अनुभाषा, अनुपालन और परिणाम —– इनसे प्रत्याख्यान होता है । यह प्रत्याख्यान इन्हीं के भेदों से चार प्रकार का जानना चाहिए ॥१३८॥ Jain Education International आचारवृत्ति - विनय से शुद्ध तथैव अनुभाषा, अनुपालन और परिणाम से शुद्ध प्रत्याख्यान चार भेद रूप हो जाता है । अर्थात् जिस प्रत्याख्यान में विनय के साथ, अनुभाषा के साथ, प्रतिपालना के साथ और परिणाम शुद्धि के साथ आहार आदि का त्याग होता है, वह प्रत्याख्यान उन विनय आदि की अपेक्षा से चार प्रकार का हो जाता है ॥१३८॥ १. For Personal & Private Use Only अ.ब. तहाणु www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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