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________________ आवश्यक नियुक्तिः उत्पन्न उत्पन्ना माया अनुपूर्व्वशो निहंतव्या । आलोचननिंदनगर्हणे न पुनः तृतीयं द्वितीयं ॥१२१॥ उत्पन्नोत्पन्ना यथा संजाता माया व्रतद्यतीचारोऽनुपूर्वशोनुक्रमेण यस्मिन् काले यस्मिन् क्षेत्रे यद् द्रव्यमाश्रित्य येन भावेन तेनैव क्रमेण कौटिल्यं परित्यज्य निहन्तव्या परिशोध्या यस्मादालोचने गुरवे दोषनिवेदने निंदने परेष्वाविष्करणे गर्हणे आत्मजुगुप्सने कर्त्तव्ये पुनर्द्वितीयं पुनर्न करिष्यामीत्यथवा न पुनस्तृतीयं दिनं द्वितीयं वा द्वितीयदिवसे तृतीयदिवसे आलोचयिष्यामीति न चिंतनीयं यस्माद्गतमपि कालं न जानतीति भावार्थस्तस्माच्छीघ्रमालोचयितव्यमिति ॥१२१॥ यस्मात् — आलोचणणिदणगरहणाहिं अब्भुट्ठिओ अ करणाए । तं भावपडिक्कमणं सेसं पुण दव्वदो भणिअं ।। १२२ ।। आलोचननिंदनगर्हणैः अभ्युत्थितश्च करणे | तत् भावप्रतिक्रमणं शेषं पुनः द्रव्यतो भणितं ॥ १२२॥ ९९ आचारवृत्ति - जिस-जिस प्रकार से माया अर्थात् व्रतों में जो-जो अतिचार उत्पन्न हुए हैं, अनुक्रम से उनको दूर करना चाहिए । अर्थात् जिस काल में, जिस क्षेत्र में, जिस द्रव्य का आश्रय लेकर और जिस भाव से व्रतों में अतीचार उत्पन्न हुए हैं, मायाचारी अर्थात् कुटिलता को छोड़कर उसी क्रम से उनका परिशोधन करना चाहिए । गुरु के सामने दोषों का निवेदन करना आलोचना है, पर के सामने दोषों को प्रकट करना निन्दा है और अपनी निन्दा करना गर्हा है । इन आलोचना, निन्दा और गर्हा के करने में “मैं दूसरे दिन आलोचना करूँगा अथवा तीसरे दिन कर लूँगा' इस तरह से नहीं सोचना चाहिए । क्योंकि बीतता हुआ काल जानने में नहीं आता है - ऐसा अभिप्राय है । इसलिए शीघ्र ही आलोचना कर लेनी चाहिए ॥१२१॥ Jain Education International भाव और द्रव्य-प्रतिक्रमण को कहते हैं गाथार्थ - आलोचना, निन्दा और गर्हा के द्वारा जो प्रतिक्रमण क्रिया में उद्यत हुआ, उसका वह भाव प्रतिक्रमण है । पुनः शेष प्रतिक्रमण द्रव्य से कहा गया है ॥१२२॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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