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आवश्यकनियुक्तिः
कृतिकर्म विनयं सिद्धभक्तिश्रुतभक्त्यादिकं कृत्वा पूर्वापरशरीरभागं स्वोपवेशनस्थानं च प्रतिलेख्य सम्माय॑ पिच्छिकया चक्षुषा चाथवा चारित्रातीचारान् सम्यनिरूप्याञ्जलिकरणशुद्धललाटपट्टविन्यस्तकरकुड्मलक्रियाशुद्ध एवमालोचयेत् गुरवेऽपराधानिवेदयेत् सुविहितः सुचरितः स्वच्छवृत्तिः ऋद्धिगौरवं रसगौरवं मानं च जात्यादिमदं मुक्त्वा परित्यज्यैवं गुरवे स्वव्रतातीचारान्निवेदयेदिति ॥११७॥
आलोचनाप्रकारमाहआलोचणं दिवसियं रादिअ इरियापधं च बोद्धव्वं । पक्खिय चादुम्मासिय संवच्छरमुत्तमटुं च ।।११८।।
आलोचनं दैवसिकं रात्रिकं ईर्यापथं च बोधव्यं ।
पाक्षिकं चातुर्मासिकं सांवत्सरिकमुत्तमार्थं च ॥११८॥ .. आलोचनं गुरुवेऽपराधनिवेदनं अर्हद्भट्टारकस्याग्रतः स्वापराधाविष्करणं वा स्वचित्तेऽपराधानामनवगूहनं, दिवसे भवं दैवसिकं, रात्रौ भवं रात्रिकं, ईर्यापथे भवमैर्यापथिकं बोद्धव्यं । पक्षे भवं पाक्षिकं, चतुर्षु मासेषु भवं चातुर्मासिकं, संवत्सरे भवं सांवत्सरिकं, उत्तमार्थे भवमौत्तमार्थं च दिवसरात्रीर्यापथपक्षचतुर्मास
आचारवृत्ति-कृतिकर्म पूर्वक सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति आदि विनय करके अपने शरीर के पूर्व-अपर भाग को और अपने बैठने के स्थान को चक्षु से देखकर और पिच्छी से परिमार्जित (प्रतिलेख्य) करके अथवा चारित्र के अतिचारों को सम्यक् प्रकार से निरूपण करके अंजलि जोड़े ललाट पट्ट पर अंजलि जोड़कर रखे, पुनः ऋद्धिगौरव, रसगौरव, सातगौरव और मान अर्थात् जाति आदि आठ प्रकार के मद को छोड़कर स्वच्छवृत्ति होता हुआ गुरु के पास अपने व्रतों के अतिचारों को निवेदित करे ॥११७॥
आलोचना के सात भेद कहते हैं
गाथार्थ-दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ-यह सात तरह की आलोचना जाननी चाहिए ॥११८॥
आचारवृत्ति-गुरु के पास अपने अपराध का निवेदन करना अथवा अर्हत भट्टारक के आगे अपने अपराधों से प्रकट करना अर्थात् अपने चित्त में अपराधों को नहीं छिपाना यह आलोचना है । यह भी दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ-ऐसी सात भेदरूप है ।
१.
ग. रसगारवं सातगारवं मानं च ।
२.
क ०यवाहं च ।
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