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________________ आवश्यकनियुक्तिः प्रतिक्रमितव्यं द्रव्यं सचित्ताचित्तमिश्रकं त्रिविधं । क्षेत्रं च गृहादिकं कालः दिवसादिकाले ॥११५॥ प्रतिक्रमितव्यं परित्यजनीयं । किं तत ? द्रव्यं सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन त्रिविधं । सह चित्तेन वर्तत' इति सचित्तं द्विपदचतुष्पदाधचित्तं सुवर्णरूप्यलोहादिमिश्रं वस्त्रादियुक्तद्विपदादि । तथा क्षेत्रं गृहपत्तनकूपवाप्यादिकं प्रतिक्रमितव्यं तथा कालो दिवसमुहूर्तरात्रिवर्षाकालादिः प्रतिक्रमितव्यः । येन द्रव्येण क्षेत्रेण कालेन वा पापागमो भवति तत् द्रव्यं तत् क्षेत्रं स कालः परिहरणीयः द्रव्यक्षेत्रकालाश्रितदोषाभाव इत्यर्थः । ___ काले च प्रतिक्रमितव्यं यस्मिन् काले च प्रतिक्रमणमुक्तं तस्मिन् काले कर्तव्यमिति, अथवा कालेऽष्टमीचतुर्दशीनंदीश्वरादिके द्रव्यं क्षेत्रं प्रतिक्रमितव्यं कालश्च दिवसादिः प्रतिक्रमितव्य उपवासादिरूपेण, अथवा 'भावो हि' पाठान्तरं भावश्च प्रतिक्रमितव्य इति । अप्रासुकद्रव्यक्षेत्रकालभावास्त्याज्यास्तद्वारेणातीचाराश्च परिहरणीया इति ॥११५॥ __ आचारवृत्ति-त्याग करने योग्य को प्रतिक्रमितव्य कहते हैं । वह क्या है ? सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का जो द्रव्य है, वह त्याग करने योग्य है । द्विपद-दास-दासी आदि और चतुष्पद, गाय, भैंस आदि ये सचेतन पदार्थ सचित्त हैं । सोना, चाँदी, लोहा आदि पदार्थ अचित्त हैं, और वस्त्रादि युक्त मनुष्य, नौकर, चाकर आदि मिश्र हैं । ये तीनों प्रकार के द्रव्य त्याग करने योग्य हैं। गृह, पत्तन, कूप, बावड़ी आदि क्षेत्र त्यागने योग्य हैं । मुहूर्त, दिन, रात, वर्षाकाल आदि काल त्यागने योग्य हैं । अर्थात् जिन द्रव्यों से जिन क्षेत्रों और जिन कालों से पाप का आगमन होता है वे.द्रव्य, क्षेत्र, काले छोड़ने योग्य हैं । अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र और काल के आश्रित होने वाले दोषों का निराकरण करना चाहिए । ___काल में प्रतिक्रमण का अभिप्राय यह है कि जिस काल में प्रतिक्रमण करना आगम में कहा गया है उस काल में करना । अथवा काल में-अष्टमी, चतुर्दशी, नंदीश्वर आदि काल में द्रव्य का, क्षेत्र का प्रतिक्रमण करना और दिवस आदि काल का भी उपवास आदि रूप से प्रतिक्रमण करना अथवा 'भावो हि ऐसा पाठान्तर भी है। उसके आधार से 'भाव का प्रतिक्रमण करना चाहिए ऐसा अर्थ होता है । तात्पर्य यह हुआ कि अप्रासुक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव त्याग करने योग्य हैं और उनके . द्वारा होने वाले अतिचार भी त्याग करने योग्य है ॥११५॥ १. ग. चित्तेन चैतन्येन वर्तत । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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