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________________ आवश्यकनियुक्तिः मूगं च मूकश्च मूक इव मुखमध्ये य: करोति वन्दनामथवा वन्दनां कुर्वन् हुंकारांगुल्यादिभिः संज्ञा च य: करोति तस्य मूकदोषः, ददुरं दर्दुरं आत्मीयशब्देनान्येषां शब्दानभिभूय महाकलकलं वृहद्गलेन कृत्वा यो वन्दनां करोति तस्य दर्दुरदोषः, अवि चुलुलिदमपच्छिमं अपि चुरुलितमपश्चिमं एकस्मिन्प्रदेशे स्थित्वा करमुकुलं संभ्राम्य सर्वेषां यो वन्दनां करोत्यथवा पञ्चमादिस्वरेण यो वन्दनां करोति तस्य चुरुलितदोषो भवत्यपश्चिमः । ___ एतैत्रिंशद्दोषैः परिशुद्धं विमुक्तं यदि कृतिकर्म प्रयुक्ते करोति साधुस्ततो विपुलनिर्जराभागी भवति ॥१०६॥ यदि पुनरेवं करोति तदाकिदियम्मं पि करंतो ण होदि किदियम्मणिज्जराभागी । बत्तीसाणण्णदरं साहू ठाणं विराहतो' ।।१०७।। कृतिकर्मापि कुर्वन् न भवति कृतिकर्मनिर्जराभागी । द्वात्रिंशतामन्यतरं साधुः स्थानं विराधयन् ॥१०७॥ : ३०. मूक-गूंगे के समान मुख में ही जो वन्दना का पाठ बोलता है अथवा वन्दना करने में 'हुंकार' आदि शब्द करते हुए या अंगुली आदि से इशारा करते हुए जो वन्दना करता है उसके मूक दोष है । . ३१. द१र--अपने शब्दों से दूसरों के शब्दों को दबाकर महाकलकल ध्वनि करते हुए ऊँचे स्वर से जो वन्दना करता है उसके दर्दुर दोष होता है । ... ३२. चुलुलित-एक प्रदेश में खड़े होकर मुकुलित अंगुलि को घुमाकर जो सभी की वन्दना कर लेता है या जो पंचम आदि स्वर से वन्दना पाठ करता है उसके चुलुलित दोष होता है । यदि साधु इन बत्तीस दोषों से रहित कृतिकर्म का प्रयोग करता है-वन्दना करता है तो वह विपुल कर्मों की निर्जरा का भागी बनता है ॥१०२-१०६॥ ... यदि पुन: ऐसा करता है तो गाथार्थ-इन बत्तीस स्थानों में से एक भी स्थान की विराधना करता हुआ साधु कृतिकर्म को करते हुए भी कृतिकर्म से होने वाली निर्जरा को प्राप्त नहीं होता है ॥१०७॥ १. अ. ब. विराधंतो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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