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________________ ६८ आवश्यकनियुक्तिः कुत्सितं शीलं आचरणं स्वभावो वा यस्यासौ कुशीलः क्रोधादिकलुषितात्मा व्रतगुणशीलैश्च परिहीनः संघास्यापयश: करणकुशलः सम्यगसंयतगुणेष्वाशक्तः, संशक्तः, आहारादिगृद्ध्या वैद्यमन्न्रज्योतिषादिकुशलत्वेन प्रतिबद्धो राजादिसेवात्परः । ओसण्णोऽअपगतसंज्ञोऽपगता विनष्टा संज्ञा सम्यग्ज्ञानादिकं यस्यासौ अपगतसंज्ञश्चारित्राद्यपहीनो जिनवचनमजानञ्चारित्रादिप्रभ्रष्टः करणालसः सांसारिकसुखमानसः । मृगस्येव पशोरिव चरित्रमाचरणं यस्यासौ मृगचरित्रः परित्यक्ताचार्योपदेशः स्वच्छन्दगतिरेकाकी जिनसूत्रदूषणस्तप: सूत्राद्यविनीतो धृतिरहितश्चेत्येते पंच पार्श्वस्था दर्शनज्ञानचारित्रेषु अनियुक्ताश्चारित्राद्यनुष्ठानपरा मंदसंवेगास्तीर्थधर्माद्यकृतहर्षाः सर्वदा न वंदनीया इति ॥ ९२ ॥ * हैं । जो अच्छी तरह से असंयत गुणों में आसक्त हैं वे 'संसक्त' कहलाते हैं । ये मुनि आहार आदि की लंपटता से वैद्य - चिकित्सा, मन्त्र, ज्योतिष आदि में कुशलता धारण करते हैं और राजा आदि की सेवा में तत्पर रहते हैं । जिनकी संज्ञा-सम्यग्ज्ञान आदि गुण अपगत- नष्ट हो चुके हैं वे 'अपसंज्ञक' कहलाते हैं । ये चारित्र आदि से हीन हैं, जिनेन्द्रदेव के वचनों को नहीं जानते हुए चारित्र आदि से परिभृष्ट हैं, तेरह प्रकार की क्रियाओं में आलसी हैं एवं जिनका मन सांसारिक सुखों में लगा हुआ है वे अपसंज्ञर्क इस सार्थक नामवाले हैं । मृग के समान अर्थात् पशु के समान जिनका चारित्र है वे 'मृगचरित्र ' कहलाते हैं । ये आचार्यों का उपदेश नहीं मानते हैं, स्वच्छन्दाचारी हैं, एकाकी विचरण करते हैं, जिन-सूत्र (जिनागम) में दूषण लगाते हैं, तप और श्रुत की विनय नहीं करते हैं, धैर्य रहित होते हैं अत: 'मृगचरित्र' - स्वैराचारी होते हैं । * ये गाथायें फलटन से प्रकाशित कृति में अधिक हैंपाँचों पार्श्वस्थ आदि का लक्षण गाथा द्वारा कहा गया हैवसहीसु य पडविद्धो अहवा उवयरणकारओ भणिओ । पासत्यो समणणाणं पासत्थो णाम सो होई ।। अर्थ- जो वसतिओं में आसक्त हैं, जो उपकरणों में बनाता रहता है, जो मुनियों के मार्ग का दूर से आश्रय करता है उसको पार्श्वस्थ कहते हैं । कोहादिकलुसिदप्पा वयगुणसीलेहि चावि परिहीणो । संघस्स अयसकारी कुसीलसमणो त्ति णायव्वो ।। अर्थ – जिसने क्रोधादिकों से अपने को कलुषति कर रखा है, व्रतगुम और शीलों से हीन है, संघ का अपयश करने वाला है वह कुशील श्रमण है ऐसा जानना । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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