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(३) वैचारिक विषमता
आज के इस बुद्धिप्रधान युग में वैचारिक मतभेद अपनी चरम सीमा पर हैं। धार्मिक क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि आज धर्म एवं सम्प्रदायों के नाम पर जो वैचारिक विषमता उत्पन्न हो रही है वह मानव के लिए एक अभिशाप बनती जा रही है।
आज आतंकवादी प्रवृतियों के मूल में अविवेकपूर्ण सांप्रदायिक कट्टरता ही तो काम कर रही है । आतंककारी सम्पूर्ण विश्व को अपनी मान्यता से रंग देना चाहते हैं । इसके लिये उन्होंने धार्मिक कट्टरता को माध्यम बनाया है । वे धर्म के लिये मरने-मारने का रास्ता अपना रहे हैं जो कि मानव जाति के लिये कलंक है ।
धर्म के नाम पर उत्पन्न इस वैचारिक विषमता का कारण यह है कि आज बाह्य कर्मकाण्ड एवं रीति रिवाजं को ही धर्म का सर्वस्व माना जा रहा है; जबकि धर्म मुख्यतः भावना-प्रधान है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जरा और मृत्यु के वेग में बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तमशरण है। ऐसे उत्तम एवं शरणभूत धर्म के नाम पर आज जो वर्ग-विद्वेष एवं साम्प्रदायिक-संकीर्णता छा रही है उसके पीछे व्यक्ति की अहंकार वृत्ति एवं स्वार्थपरता ही है। यद्यपि धार्मिक सिद्धान्तों में विविधता अवश्य है, किन्तु यह विविधता विद्वेष के लिए नहीं अपितु व्यक्ति के स्वयोग्यतानुसार विकास के लिये है। ये विभिन्न धर्ममार्ग परस्पर विरोधी नहीं हैं, वरन् ये वैसे ही हैं जैसे एक ही नगर को जाने वाले विभिन्न मार्ग।
उत्तराध्ययनसूत्र धार्मिक विषमता को दूर करने के लिये महत्त्वपूर्ण सूत्र देता है। उसमें कहा गया है:- 'पन्ना समिक्खए धम्म, तत्तं तत्त विणिच्छयं' -प्रज्ञा के द्वारा धर्म की समीक्षा करो एवं तर्क के द्वारा तत्त्व का विश्लेषण करो। इसका तात्पर्य यह है कि धर्ममार्ग का चयन स्वप्रज्ञा के आधार पर करना चाहिए। उसका निर्देश है कि यदि धर्म के मूल तत्त्व या उसको तार्किक बुद्धि से समझने का प्रयत्न नहीं किया गया तो धर्म मात्र रूढ़ि बनकर रह जायेगा। रूढ़िग्रस्त धर्म मात्र अन्धश्रद्धा के अतिरिक्त कुछ नहीं होता है। वह मात्र साम्प्रदायिक तनावों और मतभेदों को जन्म देता है। साथ ही उत्तराध्ययनसूत्र में यह भी कहा गया है:'अप्पणा सच्चमेसेज्जा' - अपना सत्य खोजो यह बहुत मार्मिक एवं तात्त्विक बात है
- उत्तराध्ययनसूत्र २३/६८ ।
१६ 'धम्मो दीवो पट्टा य, गई सरणपुत्तमं ।। Jain Education International
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