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आडम्बर का विरोध करते हुए इसमें कहा गया है कि केवल सिर मुंड लेने से कोई श्रमण नहीं होता, 'ओम्' के जप मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, केवल अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश का चीवर मात्र पहनने से कोई तापस नहीं होता।' पुनश्च आगे इसमें कहा गया है कि समभाव की साधना से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण होता है, ज्ञान की आराधना मनन करने से मुनि होता है, तप का आचरण करने से तापस होता है।
उत्तराध्ययनसूत्र के चौदहवें अध्ययन में कहा गया है कि वेद पढने पर भी वे त्राणभूत (रक्षा) नहीं होते, ब्राह्मणों को भोजन कराने पर भी व्यक्ति अन्धकारमय नरक को प्राप्त होता है। इसका तात्पर्य यही है कि धार्मिक क्रिया भी विवेकपूर्वक की जानी चाहिये। धार्मिक क्रियाओं को मात्र रूढ़ि समझकर नहीं करना चाहिये।
कर्मकाण्ड की जो आध्यात्मिक व्याख्यायें उत्तराध्ययनसूत्र में दी गई हैं उनकी प्रासंगिकता न केवल उस युग में थी, किन्तु वे आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। आज भी धर्म में कर्मकाण्ड एवं आडम्बर बढ़ते जा रहे हैं इसीलिये उन कर्मकाण्डों के आध्यात्मिक अर्थ को समझना आज अधिक प्रासंगिक हो गया है।
जन्मना वर्ण व्यवस्था का खण्डन
उत्तराध्ययनसूत्र कर्म अर्थात् व्यवसाय आदि के आधार पर जाति व्यवस्था को स्वीकार करता है किन्तु वह जन्मना जातिवाद या वर्णव्यवस्था को अस्वीकार करता है। इसके पच्चीसवें अध्याय में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि व्यक्ति कर्म के आधार पर ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होता है, न कि जन्म के आधार पर।
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार जातिगत श्रेष्ठता का प्रतिमान सदाचरण है। इसके पच्चीसवें अध्ययन में सदाचरण के आधार पर ब्राह्मणत्व की प्रतिष्ठा की गई है। इसमें कहा गया है कि जो जल में उत्पन्न हुए कमल के समान भोगों में
- उत्तराध्ययनसूत्र २५/३१ ।
४ 'न वि मुंडिएण समणो, न ओकारेण बंभणो'।
न मुणी रण वासेणं, कुसचीरेण न तावसो',।। ५ 'समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो।
नाणेण य मुणी होइ, तवेणं होइ तावसो' ।। ६ 'विया अहीया न भवन्ति ताण, भुत्ता दिया निति तमं तमे।। ७ उत्तराध्ययनसूत्र २५/३३ ।
- उत्तराध्ययनसूत्र २५/३२ । - उत्तराध्ययनसूत्र १४/१२ का अंश ।
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