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श्री रूनीतीर्थोद्धारक पू. आचार्य श्री विनयचन्द्रसूरिजी म.सा.
के शिष्य कल्पजयसूर
शुभाकांक्षा :
ॐ ह्रीं अर्ह नमः
भारत देश ही एक ऐसा देश है जहां आध्यात्मिकता का सूर्य आज भी तपता है । जीवन शान्ति के लिये आध्यात्मिकता की शरणागति के सिवा कोई ईलाज नहीं है अतः साहित्य जगत में आध्यात्मिकता का प्रसार अत्यावश्यक है ।
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आदमी के जीवन में साहित्य का बड़ा प्रभाव है । साहित्य ही आदमी को सदाचारी, आदर्श एवं पवित्र बनाता है और साहित्य ही इन्सान को हैवान एवं दुर्जन, दुराचारी एवं अनाड़ी भी बनाता है । अतः इस युग में भौतिकता एवं विलासिता के चक्कर से बचने के लिये आध्यात्मिक साहित्य प्रकाशन बहुत ही जरुरी है ।
जैनदर्शन ने जगत को अनुपम, उत्तम साहित्य की जो भेंट दी हैं शायद इतनी किसी दर्शन ने नहीं दी है । ऐसे ही विशाल साहित्य में से एक है उत्तराध्ययनसूत्र । उसमें पत्ते - पत्ते पर त्याग, वैराग्य, निर्ममत्वभाव, सहनशीलता, क्षमा नम्रता, दमन इत्यादि की प्रेरणा भरी हुई है ।
उत्तराध्ययनसूत्र प्रभु महावीर की अन्तिम वाणी है अपनी मृत्यु को ज्ञान बल से नजदीक देखकर जगत के जीवों को जाते जाते कुछ हित शिक्षा प्रदान करने हेतु जो प्रवचन दिया उसको ग्रन्थरूप किया वही उत्तराध्ययनसूत्र के नाम से प्रसिद्ध है ।
साध्वी विनीतप्रज्ञा जी ने उत्तराध्ययनसूत्र के ऊपर यह थीसीस लिखकर आम जनता को सूत्र का परिचय कराने के साथ साथ ही उत्तराध्ययनसूत्र के अमूल्य ज्ञान पाने की जिज्ञासा पैदा करने का एवं इस आगमसूत्र के प्रति आदरभाव बढ़ाने का अद्भुत प्रयत्न किया है इस भौतिकवाद के भयानक युग में वासना विलास के साहित्य के अनिष्टों से बचाने का अच्छा काम किया है अतः यह प्रयास स्तुत्य है, अनुमोदनीय है । आगे भी श्रुतज्ञान - भक्ति का काम करने में उमंग बढ़ती रहे, प्रगति करे यही शुभाकांक्षा ।
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