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________________ प्रथम प्रकाश 1 कारण जंघाचारणों की लौटते समय सामर्थ्य कम हो जाती है । मगर विद्याचारण विद्या के प्रभाव से होते हैं । विद्या का ज्यों-ज्यों प्रयोग किया जाता है, त्यों-त्यों उसका उत्कर्ष होता है । इसी कारण विद्याचारण जितनी दूर दो उडानों में जाते हैं, आते समय एक ही उडान में उस दूरी को पार कर लेते हैं । आशीविष लब्धि वह है, जिसके प्रभाव से शाप और अनुग्रह की शक्ति प्राप्त हो जाती है । इन्द्रियों और मन की सहायता के विना रूपी द्रव्यों को नियत सीमा तक जानने वाला ज्ञान-१ श्रवधि- ज्ञान कहलाता है । प्रढ़ाई द्वीप के अन्तर्गत संज्ञी जीवों के मनोद्रव्यों को साक्षात् जानने वाला ज्ञान - मनः पर्याय कहलाता है । यह दोनों ज्ञान भी लब्धियों में गिने गए हैं । 2 तात्पर्य यह है कि उल्लिखित समस्त लब्धियाँ योग के निमित्त से प्राप्त होती हैं । Jain Education International हो योगस्य माहात्म्यं, प्राज्यं साम्राज्यमुद्वहन् । अवाप केवलज्ञानं, भरतो भरताधिपः ॥ १० ॥ पूर्वमप्राप्त धर्माऽपि परमानन्दनन्दिता । योगप्रभावतः प्राप, मरुदेवी परं पदम् ॥ ११ ॥ ब्रह्म-स्त्री-भ्रूण - गोघात - पातकान्नरकातिथेः । प्रहार - प्रभृतेर्योगो, हस्तावलम्ननम् ॥ १२ ॥ तत्कालकृतदुष्कर्म कर्मठस्य दुरात्मनः । गोप्त्रे चिलातिपुत्रस्य, योगाय स्पृहयेन्न कः ? ।। १३ ।। उस योग के माहात्म्य का वर्णन कहाँ तक किया जाय जिसके प्रभाव से षट्खण्ड — भरतक्षेत्र के अधिपति भरत चक्रवर्ती ने विशाल साम्राज्य के भार को वहन करते हुए भी केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । धर्मतीर्थ की स्थापना न होने के कारण जिन्हें पहले धर्म की - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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