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________________ प्रथम प्रकाश मंगलाचरण नमो दुर्वाररागादि- वैरिवार निवारिणे । श्रर्हते योगिनाथाय, महावीराय तायिने ॥ १ ॥ जिनको जीतना कठिन है, ऐसे राग-द्वेष आदि वैरियों के समूह को निवारण करने वाले, चार घाति कर्मों का नाश करने वाले, योगियों के नाथ और प्राणी मात्र के संरक्षक भगवान महावीर को नमस्कार हो । पन्नगे च सुरेन्द्रे च, कौशिके पाद- संस्पृशि | निर्विशेषमनस्काय, श्री वीरस्वामिने नमः ॥ २ ॥ अपने चरणों का स्पर्श करने वाले चण्डकौशिक साँप पर और सुरेन्द्र पर पूर्ण रूप से समभाव रखने वाले, परम बीतराग मनोवृत्ति बाले श्री वीर भगवान् को नमस्कार हो । तात्पर्य यह है कि चण्डकौशिक पूर्व भव में कौशिक गोत्रीय ब्राह्मण था और सुरेन्द्र का नाम भी कौशिक है । सर्प ने काटने - हँसने के इरादे किया था और इन्द्र ने भक्ति से प्रेरित होकर । आकाश-पाताल का अन्तर था, किन्तु भगवान् के भाव में कुछ भी अन्तर नहीं था । उनका दोनों पर एक-सा करुणामय भाव था । से प्रभु के पैर का स्पर्श दोनों की भावनाओं में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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