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जीवन-रेखा
है और नई-नई समस्याएँ उसके सम्मुख प्रा खड़ी होती हैं। पूज्य पिता श्री का समय आनन्द से बीत रहा था, परन्तु एकाएक परिस्थितियाँ बदलने लगीं और उन्हें अपने जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ।
लेग के समय घर की बहुत-सी पूँजी जन सेवा में खर्च हो गई थी । घर का जेवर एवं जमीन आदि भी बेच दी गई थी । इससे उनकी भाभी जी काफी नाराज रहती थीं और अपनी देवरानी (मेरी माता जी ) पर ताने एवं व्यंग कसती रहती थीं । माताजी शान्त स्वभाव की थीं । वह सब कुछ सहन कर लेती थीं। वह पिताजी के उग्र स्वभाव से परिचित थीं, अतः उन्होंने उनके सामने इस बात का कभी जिक्र तक नहीं किया, परन्तु एक दिन एक पड़ौसिन ने मेरे पिताजी को सारी घटना कह सुनाई । यह सुनते ही पिताजी को प्रवेश आ गया और वे आवेश में ही घर से चल पड़े । उन्होंने घर से कोई वस्तु साथ नहीं ली । माता जी को साथ लेकर वे घर से खाली हाथ अहमदाबाद की ओर रवाना हो गए और किसी तरह अहमदाबाद श्रा पहुँचे ।
अहमदाबाद में उनका किसी से कोई परिचय नहीं था और न पास में पैसा ही था कि कोई काम शुरू किया जाए । परन्तु अचानक उन्हें एक परिचित छींपा - कपड़े छापने वाला मिल गया। उससे चार प्राने उधार लिए और दाल-सेव का खोंमचा लगाकर अपना काम शुरू किया। उसके बाद एक अस्पताल में कम्पाउंडर का काम करने लगे । दिन में अस्पताल में काम करते, शाम को दाल-सेव बेचते और रात को खान (Mine) पर पहरा देते । इस तरह दिन-रात कठोर परिश्रम करके उन्होंने ११००० रूपए कमाए। अपने श्रम से अपने भाग्य को नया मोड़ देने लगे ।
परन्तु, दुर्भाग्य ने अभी भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। एक दिन
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