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________________ योग-शास्त्र प्रयोग किया गया है। महर्षि पतंजलि ने सवितर्क, सविचार, सानन्द और सास्मित-चार प्रकार के संप्रज्ञात योग का उल्लेख किया है। जैन परम्परा में-१. पृथक्त्ववितर्क-सविचार, २. एकत्ववितर्क-प्रविचार, ३. सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति, ४. समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति-ये शुक्ल-ध्यान के चार भेद माने हैं। ... ध्यान के उक्त भेदों में जो शब्द-साम्य परिलक्षित होता है, वह महत्वपूर्ण है। परन्तु, तीनों परम्पराओं में तात्त्विक एवं सैद्धान्तिक मेव होने के कारण ध्यान के भेदों में शब्द-साम्य होते हुए भी प्रर्य की छाया विभिन्न दिखाई देती है। इसका कारण है-दृष्टि की विभिन्नता । सांख्य परम्परा प्रकृतिवादी है और बौद्ध एवं जैन परम्परा परमाणुवादी हैं । जैन परम्परा परमाणु को द्रव्य रूप से नित्य मानकर उसमें रही हुई पयार्यों की अपेक्षा से उसे अनित्य मानती है। परन्तु, बौद्ध परम्परा किसी भी नित्य द्रव्य को नहीं मानती। वह सब कुछ प्रवाह रूप मौर प्रनित्य मानती है। यह तीनों परम्परामों की तात्त्विक मान्यता की भिन्नता है । परन्तु, यदि हम स्थूल दृष्टि से न देखकर सूक्ष्म दृष्टि से तीनों परम्परामों के अर्थ का अध्ययन करते हैं, तो उसमें भेद के साथ कुछ साम्यता भी दिखाई देती है। योग-सूत्र में 'वितर्क' और 'विचार' शब्द संप्रज्ञात के साथ माए हैं और आगे चलकर इनके साथ समापत्ति' का सम्बन्ध भी जोड़ दिया है। जो विचार और वितर्क संप्रज्ञात से संबद्ध हैं, उनका अनुक्रम से अर्थ है-स्थूल विषय में एकाग्र बने हुए चित्त को, मन को होने वाला स्थूल साक्षात्कार और सूक्ष्म विषय में एकाग्र बने हुए चित्त को होने वाला सूक्ष्म साक्षात्कार । और जब वितर्क और विचार के साथ समापत्ति का वर्णन आता है, तब स्थूल साक्षात्कार को सवितर्क और निर्वितर्क उभय रूप माना है और सूक्ष्म साक्षात्कार को सविचारपार निर्विचार-दोनों प्रकार का माना है । इसका निष्कर्ष यह है कि योग-सूत्र में वितक' और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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