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________________ योग-शास्त्र मन डगमगा जाएगा। प्रतः गणना के लिए पांच और दस के बीच की संख्या लेनी चाहिए। जब मन गणना करने में संलग्न हो जाए, तब गणना के कार्य को छोड़कर सांस के अन्दर जाने एवं बाहर आने के साथ चित्त भी मन्दरबाहर आता-जाता रहे अर्थात् चित्त को श्वासोच्छवास के साथ जोड़ दे। इस प्रक्रिया को 'अनुबन्धना' कहते हैं। ___ श्वास और प्रश्वास आते-जाते समय नासिका के अग्र भाग को स्पर्श करते हैं। अतः उस स्थान पर चित्त को लगाना स्पर्श कहलाता है। और श्वास एवं प्रश्वास पर चित्त को एकाग्र करने की प्रक्रिया को स्थापना कहते हैं। जब साधक चित्त को एकाग्न कर लेता है, तो समझना चाहिए उसने समाधि-मार्ग में प्रवेश कर लिया है। अब उसे चाहिए कि वह चित्त की एकाग्नता के अभ्यास को इतना दृढ़ कर ले कि भय, शोक एवं हर्ष प्रादि के समय भी चित्त विभ्रान्त न हो सके। .. प्रथम चौकड़ी में मन को एकाग्र करने के लिए उसे गणना प्रादि के साथ जोड़ने का उपदेश दिया गया है। द्वितीय चौकड़ी में चित्त को, मन को एकाग्र करने के लिए प्रीति-प्रेम को मुख्य स्थान दिया गया है। प्रस्तुत में प्रीति का अर्थ है-निष्काम प्रेम, विश्व-बन्धुत्व की भावना। इस साधना से योगी का मन प्रीति के साथ एकाग्र हो जाता है, निष्कंप बन जाता है और योगी अपनी वेदना, रोग एवं दुःख-दर्द आदि को भूल जाता है । तब उसे अनुपम सुख एवं प्रानन्द की अनुभूति इस प्रयत्न से योगी के चित्त की गति मन्द हो जाती है, उसमें स्थिरता पा जाती है। तब वह चित्त को विमुक्त करके श्वासोच्छवास की क्रिया करता है अर्थात् वह श्वासोच्छ्वास में मासक्त नहीं होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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