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________________ द्वादश प्रकाश यहि यथा यत्र यतः स्थिरीभवति योगिनश्चलं चेतः । तर्हि तथा तत्र ततः कथञ्चिदपि चालयेन्नैव ॥ २६ ॥ अनया युक्त्याभ्यासं विदधानस्यातिलोलमपि चेतः । अंगुल्यग्र स्थापित दण्ड इव स्थैर्यमाश्रयति ॥ ३० ॥ - - योगी का चंचल चित्त जब, जिस प्रकार, जिस जगह और जिस निमित्त से स्थिर हो, तब उस प्रकार उस जगह से और उसी निमित्त से उसे तनिक भी चलायमान नहीं करना चाहिए। इस प्रकार अभ्यास करने से श्रतीव चंचल मन भी अंगुली के अग्रभाग पर स्थापित किए हुए दंड की तरह स्थिर हो जाता है । दृष्टिजय का उपाय २८६ निःसृत्यादौ दृष्टिः संलीना यत्र कुत्रचित्स्थाने । तत्रासाद्य स्थेयं शनैः शनैविलयमाप्नोति ॥ ३१ ॥ सर्वत्रापि प्रसृता प्रत्यग्भूता शनैः शनैरृष्टिः । परतत्त्वामलमुकुरे निरीक्षते ह्यात्मनात्मानम् ।। ३२ ।। Jain Education International प्रारंभ में दृष्टि बाहर निकल कर किसी भी अनियत स्थान में लीन हो जाती है वहाँ 'स्थिरता प्राप्त करके वह धीरे-धीरे विलय को प्राप्त होती है— पीछे हटती है । इस प्रकार सर्वत्र फैली हुई और वहाँ से धीरे-धीरे हटी हुई दृष्टि परम तत्त्व रूपी निर्मल दर्पण में अपने आप से अपने स्वरूप को देखने लगती है । मनोविजय की विधि प्रौदासीन्यनिमग्नः प्रयत्नपरिवर्जितः सततमात्मा । भावित परमानन्दः क्वचिदपि न मनो नियोजयति ॥ ३३ ॥ करणानि नाधितिष्ठत्युपेक्षितं चित्तमात्मना जातु । ग्राह्ये ततो निजनिजे करणान्यपि न प्रवर्तन्ते ॥ ३४ ॥ १६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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