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द्वादश प्रकाश
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अभ्यास करना चाहिए । इस तरह अभ्यास करने से निरालम्बन ध्यान होने लगता है । निरालम्बन ध्यान से समरस प्राप्त करके परमानन्द का अनुभव करना चाहिए ।
बाह्यात्मानमपास्य प्रसत्तिभाजान्तरात्मना योगी । सततं परमात्मानं विचिन्तयेत्तन्मयत्वायं ॥ ६ ॥
योगी को चाहिए कि वह बहिरात्मभाव का त्याग करके अन्तरात्मा के साथ सामीप्य स्थापित करे और परमात्ममय बनने के लिए निरन्तर परमात्मा का ध्यान करे ।
बहिरात्मा प्रन्तरात्मा
श्रात्मधिया समुपात्तः कायादिः कीर्त्यतेऽत्र बहिरात्मा । कायादेः समधिष्ठायको भवत्यन्तरात्मा तु ॥ ७ ॥
शरीर आदि बाह्य पदार्थों को आत्म-बुद्धि से ग्रहण करने वाला अर्थात् शरीर, धन, कुटुम्ब, परिवार श्रादि में हम - बुद्धि रखने वाला बहिरात्मा कहलाता है । और जो शरीर आदि को श्रात्मा तो नहीं समझता, किन्तु अपने को उनका अधिष्ठाता समझता है, वह 'अन्तरात्मा' कहलाता है । बहिरात्मा जीव शरीर, इन्द्रिय आदि को ही आत्मा -- अपना स्वरूप मानता है, जब कि अन्तरात्मा शरीर और आत्मा को भिन्न समझता हुआ यही मानता है कि मैं शरीर में रहता हूँ, शरीर का संचालक हूँ ।
परमात्मा
चिद्रूपानन्दमयो निःशेषोपाधिवर्जितः शुद्धः । प्रत्यक्षोऽनन्तगुणः परमात्मा कीर्तितस्तज्ज्ञैः ॥ ८ ॥
चिन्मय, श्रानन्दमय, समग्र उपाधियों से रहित, इन्द्रियों से अगोचर और अनन्त गुणों से युक्त आत्मा परमात्मा कहलाता है ।
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