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________________ २५६ योग-शास्त्र . आत्मा अभिन्न होकर परमात्मस्वरूप में लीन हो जाती है । ध्याता और ध्येय की इस प्रकार की एकरूपता को ही समरसी भाव कहते है । टिप्पण--अभिप्राय यह है कि ध्याता जब तन्मयता के साथ सिद्ध स्वरूप का चिन्तन करता है और वह चिन्तन जब परिपक्व बन जाता है तब ध्याता, ध्येय और ध्यान का विकल्प नष्ट हो जाता है और इन तीनों में प्रखंड एकरूपता की अनुभूति होने लगती है। यह स्थिति समरसी भाव कहलाती है। ध्यान का क्रम अलक्ष्यं लक्ष्य सम्बन्धात् स्थूलात् सूक्ष्म विचिन्तयेत् । सालम्बाच्च निरालम्बं तत्त्ववित्तत्त्वमञ्जसा ॥५॥ पहले पिंडस्थ, पदस्थ आदि लक्ष्य वाले ध्यानों का अभ्यास करके फिर लक्ष्यहीन-निरालंबन ध्यान का अभ्यास करना चाहिए । पहले स्थूल ध्येयों का चिन्तन और फिर क्रमशः सूक्ष्म और सूक्ष्मतर ध्येयों का चिन्तन करना चाहिए। पहले सालंबन ध्यान का अभ्यास करके फिर निरालम्बन ध्यान में प्रवृत्त होना चाहिए। इस क्रम का अवलंबन करने वाला तत्त्ववेत्ता तत्त्व को प्राप्त करलेता है। एवं चतुर्विध-ध्यानामृत-मग्नं मुनेर्मनः। साक्षात्कृतजगतत्त्वं विधत्ते शुद्धिमात्मनः ॥६॥ इस प्रकार पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत-इन चार प्रकार के ध्यान रूपी अमृत में मग्न मुनि का मन जगत् के तत्त्वों का साक्षात्कार करके प्रात्म-विशुद्धि को प्राप्त करता है। इन ध्यानों में संलग्न योगी अपनी आत्मा को पूर्णतः शुद्ध बना लेता है। प्रकारान्तर से धर्म-ध्यान के भेद आज्ञापायविपाकानां संस्थानस्य च चिन्तनात् । इत्थं वा ध्येय-भेदेन धर्म-ध्यानं चतुर्विधम् ॥७॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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