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________________ नवम प्रकाश २५३ राग, द्वेष, मोह आदि विकारों से रहित, शान्त, कान्त, मनोहर प्रादि समस्त प्रशस्त लक्षणों से युक्त, इतर मतावलम्बियों द्वारा अज्ञात योगमुद्रा को धारण करने के कारण मनोरम, तथा नेत्रों से अमन्द प्रानन्द का अद्भुत प्रवाह बहाने वाले जिनेन्द्र देव के दिव्य-भव्य रूप का निर्मल चित्त से ध्यान करने वाला योगी भी रूपस्थ-ध्यान करने वाला कहलाता है।। रूपस्थ ध्यान का फल योगी चाभ्यास-योगेन तन्मयत्वमुपागतः। सर्वशीभूतमात्मानमवलोकयति स्फुटम् ।।११॥ रूपस्थ-ध्यान के अभ्यास करने से तन्मयता को प्राप्त योगी अपने प्रापको स्पष्ट रूप से सर्वज्ञ के रूप में देखने लगता है। इसका अभिप्राय यह है कि जब तक साधक का मन वीतराग-भाव में रमण करता है, तब तक वह वीतराग-भाव की ही अनुभूति करता है । सर्वज्ञो भगवान् योऽयमहमेवास्मि स ध्रुवं । एवं तन्मयतां यातः सर्ववेदीति मन्यते ॥१२॥ जो सर्वज्ञ• भगवान् है, निस्सन्देह वह मैं ही हूँ, जिस योगी को इस प्रकार की तन्मयता के साथ एकरूपता प्राप्त हो जाती है, वह योगी सर्वज्ञ माना जाता है। जैसा पालम्बन, वैसा फल वीतरागो विमुच्येत वीतरागं विचिन्तयन् । __रागिणं तु समालम्ब्य रागी स्यात् क्षोभणादिकृत् ॥१३ । वीतराग का ध्यान करता हुआ योगी स्वयं वीतराग होकर कर्मों से या वासनाओं से मुक्त हो जाता है। इसके विपरीत, रागी का ध्यान करने वाला स्वयं रामवान् बन कर काम, क्रोध, हर्ष, विषाद आदि विक्षेपों का जनक बन जाता है। अभिप्राय यह है कि जैसा ध्यान का पालम्बन होता है, ध्याता वैसा ही बन जाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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