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अष्टम प्रकाश
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से आते हुए, मुख से संचार करते हुए, प्रभामण्डल में स्थित भौर चन्द्रमा के सदृश कान्ति वाले मायाबीज 'ही' का उस कणिका में चिन्तन करना चाहिए ।
ततो भ्रमन्तं पत्रेषु सञ्चरन्तं नभस्तले । ध्वंसयन्तं मनोध्वान्तं स्रवन्तं च सुधारसम् ।। ५० ।। तालुरन्ध्रेण गच्छन्तं लसन्तं भ्रू-लतान्तरे । त्रैलोक्याचिन्त्यमाहात्म्यं ज्योतिर्मयमिवाद्भुतम् ।। ५१ ।। इत्यम् ध्यायतो मन्त्रं पुण्यमेकाग्र - चेतसः । वाग्मनोमल - मुक्तस्य श्रुतज्ञानं प्रकाशते ।। ५२ ।।
तदनन्तर प्रत्येक पत्र पर भ्रमण करते हुए, श्राकाशतल में विचरण करते हुए, मन की मलीनता को नष्ट करते हुए, अमृत रस को बहाते हुए, तालुरन्ध्र से जाते हुए, भ्रकुटि के मध्य में सुशोभित होते हुए, तीनों लोकों में अचिन्त्य माहात्म्य वाले, मानों प्रद्भुत ज्योति स्वरूप, इस पवित्र मन्त्र का एकाग्र मन से ध्यान करने से मन और वचन की मलीनता नष्ट हो जाती है और श्रुतज्ञान का प्रकाश होता है ।
मासैः षड्भिः कृताभ्यासः स्थिरीभूतमनास्ततः । निःसरन्तीं मुखाम्भोजाच्छिखां धूमस्य पश्यति ॥ ५३ ॥ संवत्सरं कृताभ्यासस्ततो ज्वालां विलोकते । ततः संजात संवेगः सर्वज्ञमुख-पङ्कजम् ॥ ५४ ॥ स्फुरत्कल्याण-माहात्म्यं सम्पन्नातिशयं ततः । भामण्डलगतं साक्षादिव सर्वज्ञमीक्षते ॥ ५५ ॥ ततः स्थिरीकृतस्वान्तस्तत्र संजात निश्चयः । मुक्त्वा संसारकान्तारमध्यास्ते सिद्धिमन्दिरम् ॥ ५६ ॥
छह महीने तक निरन्तर अभ्यास करने से साधक का चित्त जब स्थिर हो जाता है, तो वह अपने मुख कमल से निकलती हुई धूम की
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